Editorial: गर्भपात से एक जिंदगी बची तो दूसरी मिटेगी, यह सही न्याय होगा?
- By Habib --
- Thursday, 12 Oct, 2023
If abortion saves one life, another will be lost
एक महिला को गर्भपात की स्वतंत्रता या फिर गर्भ में पल रही एक जिंदगी के जीवित रहने के अधिकार पर बहस जरूरी है। यह प्रश्न बेहद प्रासंगिक है कि किसी का जीवन अनमोल है, या किसी का सम्मान या अन्य मजबूरी। क्या वास्तव में एक गर्भस्थ जिंदगी को इस आधार पर नष्ट कर दिया जाए कि उसकी धारणकर्ता महिला उसे नहीं चाह रही है। देश में इस विषय पर अनेक मत-विचार सामने आते हैं। अदालतों में आए वे मामले भी सुनने को मिलते हैं, जिनमें गर्भपात की इजाजत देने की मांग की गई होती है। दरअसल, यह मामला अब इसलिए बेहद चर्चित हो गया है, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की पीठ ने एक खंडित फैसला सुनाया है। दोनों न्यायाधीशों ने इस संबंध में अपने-अपने विचार सामने रखे हैं। विडम्बना यह है कि दोनों के फैसले ही अपनी-अपनी जगह सही नजर आते हैं, लेकिन चूंकि यह अदालत है और इसे किसी एक फैसले पर पहुंचना आवश्यक है, इसलिए इसे खंडित फैसला बताकर अब मामले को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखा जाएगा, जोकि इसके निपटान के लिए कमेटी बनाएंगे।
दरअसल, मामला यह है कि एक 27 वर्षीय विवाहिता ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर 26 सप्ताह के गर्भ को नष्ट कराने की इजाजत मांगी है। महिला का कहना है कि उसके पहले से दो बच्चे हैं। कोर्ट ने महिला को बताया कि डॉक्टर की राय में बच्चा ठीक है और वह जीवित भी पैदा हो सकता है। साथ ही अभी गर्भपात कराने से बच्चे को नुकसान होने की बात भी समझाई। अब इस याचिका पर न्यायाधीश हिमा कोहली ने कहा कि वह महिला को गर्भपात की इजाजत नहीं दे सकतीं जबकि न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने महिला को गर्भपात की इजाजत देने के गत 9 अक्तूबर के आदेश को बरकरार रखा। अगर इस खंडित फैसले पर चिंतन करें तो न्यायमूर्ति हिमा कोहली का यह कहना सर्वथा उचित है कि आखिर कौनसी अदालत भ्रूण के दिल की धडक़न रोकने के लिए कहेगी।
वहीं न्यायमूर्ति नागरत्ना का तर्क है कि महिला के फैसले का सम्मान होना चाहिए जोकि इस गर्भ को नहीं चाहती है। इस मामले में दोनों न्यायधीशों का किसी एक फैसले पर पहुंचना अन्याय होता लेकिन दोनों ने अगर अलग-अलग फैसले दिए हैं तो यह भारतीय समाज और संस्कृति के उस पहलु की नजीर पेश करता है, जिसमें जहां एकतरफ महिला के अधिकार और उनकी चाह को सम्मान दिया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर एक भ्रूण जिसकी अभी कोई आवाज नहीं है, की मूक आवाज को अपना समर्थन दिया जा रहा है। देशभर में न जाने कितने भ्रूण बगैर किसी प्रतिकार के नष्ट कर दिए जाते हैं। इसकी वजह अवैध होना होती है और उनका स्त्रीलिंग होना भी। बेशक, डॉक्टर अगर इसकी जरूरत बताते हैं कि किसी भ्रूण के नष्ट किए जाने से संबंधित महिला की जान बचेगी नहीं तो उनका जीवन संकट में है तो कदम उठाए जा सकते हैं। लेकिन अगर गर्भ में पल रहा भ्रूण स्वस्थ है, और उससे माता को कोई क्षति नहीं पहुंचनी है तो क्या तब भी उस भ्रूण या फिर एक जीवन को खत्म करने की इजाजत दी जाए।
गौरतलब है इस मामले में केंद्र ने अर्जी में महिला की जांच करने वाले मेडिकल बोर्ड के एक डॉक्टर की ओर से भेजे गए ईमेल को आधार बनाया है जिसमें कहा गया है कि गर्भ में पल रहा बच्चा ठीक है और उसके जीवित पैदा होने की उम्मीद है। अगर इस समय गर्भपात किया गया तो बच्चे को नुकसान हो सकता है। चीफ जस्टिस की पीठ ने गर्भपात को टालने का आदेश देते हुए केंद्र की अर्जी को सुनवाई के लिए जस्टिस कोहली और जस्टिस नागरत्ना की पीठ को भेज दिया था। इसके बाद दोनों न्यायाधीशों ने इस याचिका पर खंडित फैसला दिया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के दूसरे न्यायाधीश न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना का यह तर्क भी सम्मानीय है कि एक महिला के फैसले का सम्मान होना चाहिए। इस केस में महिला ने अदालत को बताया है कि उसके पहले से दो बच्चे हैं, और वह अवसादग्रस्त है, इसलिए तीसरे बच्चे की परवरिश करने की स्थिति में नहीं है।
बेशक, यह गंभीर बात है, जिसके बारे में उन्होंने अदालत के समक्ष गर्भपात की अर्जी लगाई है। लेकिन क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर उन्हें इसका अंदाजा इतनी देर बाद क्यों हुआ। समय रहते उन्होंने वे सभी उपाय क्यों नहीं किए, जोकि वे उठा सकती थी। क्या यह विषय मुंह छिपाकर चर्चा करने का है। एक भ्रूण जोकि स्वस्थ है और एक शिशु में बदल चुका है, को क्यों नहीं जीवित रहने का हक होना चाहिए। वास्तव में इस संबंध में सर्वोच्च अदालत को सभी पहलुओंं पर विचार करके ही निर्णय देना होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रत्येक को जीवन का अधिकार है, एक माता को भी और उसके गर्भस्थ भ्रूण को भी।
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