जेलों में नहीं रही पैर रखने की भी जगह, यह न्यायिक व्यवस्था पर बड़ा सवाल
jail reform in india
President Draupadi Murmu on jail reform : ''आजकल हम यह सुन रहे हैं, जब यह कहा जा रहा है कि हमें और जेल बनानी चाहिएं। आखिर इनकी जरूरत क्या है? अगर एक समाज के रूप में आगे बढ़ रहे हैं, अगर अहम विकास कर रहे हैं, तब हमें जेलों की जरूरत क्यों होनी चाहिए? हमें यह नहीं चाहिए। वास्तव में अभी बनी जेलों को भी बंद किए जाने की जरूरत है।''
यह बात राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने बीत दिनों संविधान दिवस समारोह के आयोजन के दौरान अपने संबोधन में कही थी। (President Draupadi Murmu commented over the increasing number of undertrials in India) राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के इस कथन के बाद जेलों में बंद कैदियों के अधिकारों को लेकर नए सिरे से बहस शुरू हो गई है। जेलें अपराधियों को बंद रखकर उन्हें सुधरने का मौका देने की जगह हैं, हालांकि स्वतंत्र भारत में लगातार इसकी जरूरत महसूस की जा रही है कि जेलें अब छोटी पड़ती जा रही हैं और नई जेलों का निर्माण एक जरूरत बन गया है। फिर यह सवाल अहम हो जाता है कि आखिर मामूली अपराधों में भी जेल में बंद करके क्यों रखा जाता है, क्या ऐसे लोगों को जमानत पर रिहा नहीं किया जा सकता।
गौरतलब है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ओडिशा में बतौर विधायक और बाद में झारखंड की राज्यपाल होने के नाते अनेक बार जेलों में कैदियों से मिलीं। इस दौरान कैदियों की जिंदगी की दुश्वारियों को उन्होंने महसूस किया। बतौर राष्ट्रपति अब वे अपने भाषण में कैदियों की जिंदगी पर प्रकाश डाल रही हैं तो इसका अभिप्राय यह है कि देश को इस संबंध में विचार करना होगा। जेलों में कैदियों की बढ़ती भीड़, उनकी सामाजिक पहचान और लंबे समय तक बगैर मुकदमा चले ही बंद रखने जैसी समस्याओं पर राष्ट्रपति ने गौर फरमाया।
तलाशना होगा तीनों को समाधान
जिस समय वे अपनी बात रख रही थीं, उस समय देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश और केंद्र सरकार के कानून मंत्री भी वहां पर मौजूद थे। यानी कार्यपालिका और न्यायपालिका के सर्वोच्च कर्ताधर्ता भी उनकी बातों को सुन रहे थे। इस दौरान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने उनसे इन मसलों पर ध्यान देने और उनके समाधान का आह्वान किया। उनका कहना था- कार्यपालिका, विधानपालिका और न्यायपालिका को एकजुट होकर इसका समाधान तलाशना होगा।
तो काम आई राष्ट्रपति की भावुक अपील
गौरतलब है राष्ट्रपति मुर्मू के भाषण के पश्चात 29 नवंबर को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एसके कौल और अभय एस ओका ने जेल अथॉरिटी को निर्देशित किया है कि उन कैदियों की सूची पेश की जाए जोकि जमानत हासिल करने के बावजूद जेलों में सड़ रहे हैं। अदालत के निर्देशानुसार सबसे पहले ऐसा विवरण संबंधित राज्य सरकारों को भेजा जाएगा, जिसके बाद वहां से राष्ट्रीय न्यायिक सेवा प्राधिकरण यानी नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी को अगले 15 दिनों में दस्तावेज भेजे जाएंगे।
ऐसा नहीं है कि जेलों में बंद कैदियों के संबंध में पहली बार उच्च स्तर पर मंथन हो रहा है। बीते वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने विभिन्न अवसरों पर जेलों में कैदियों की अत्यधिक संख्या पर गौर फरमाते हुए भीड़ कम करने की नसीहत दी है। हालांकि ज्यादातर अदालतों की टिप्पणियां और निर्देश जस के तस बने हुए हैं। भीड़ कम करने के प्रयास किए गए हैं, लेकिन फिर भी वे नाकाफी साबित हुए हैं। अभी उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश की 1378 जेलों में 6,05600 कैदी बंद हैं, जबकि ये जेलें सिर्फ 425609 कैदियों के लिए ही बनी हैं।
जेलों में इन अमानवीय हालात को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2016 में राज्य सरकारों को कैदियों की भीड़ को कम करने के लिए तुरंत सभी जरूरी कदम उठाने को कहा था। इसके बाद वर्ष 2018 में जेल सुधारों पर सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति अमिताव रॉय की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी को एक साल के अंदर अपनी रिपोर्ट पेश करने को कहा गया था। बाद में इसे अनेक विस्तार मिलते गए। इसके बाद इस वर्ष मार्च में कमेटी को अंतिम बार छह माह का विस्तार देते हुए अपनी रिपोर्ट पेश करने को कहा गया।
अदालत ने लगातार केंद्र और राज्यों के गृह विभागों की ओर से जेलों के दयनीय हालात को दुरुस्त करने संबंधी रवैये पर हैरानी जाहिर की है। सर्वोच्च अदालत (supreme court of india regarding jail inmates) की ओर से वर्ष 2020 में कोरोना महामारी के दौरान स्वयं संज्ञान लेते हुए कैदियों की भीड़ को कम करने के आदेश दिए गए थे। उस समय अनेक राज्यों ने अपने यहां बड़ी संख्या में कैदियों को रिहा कर दिया था। लेकिन 2022 आते ही जेलों में फिर से वैसे ही हालात बन गए। जिस कोरोना महामारी को आधार बनाकर कैदियों को छोड़ा गया था, वही फिर से जेलों में उनकी भीड़ का आधार बन गई। महाराष्ट्र में वे कैदी जिन्हें अस्थाई जमानत या पैरोल पर छोड़ा गया था, वापस जेलों में लौट आए और इससे जेलों के अंदर कैदियों का ऑक्यूपेंसी रेट 180 फीसदी बढ़ गया। वहीं कई राज्यों दिल्ली और उत्तर प्रदेश में ऑक्यूपेंसी रेट लगभग 200 फीसदी पर पहुंच चुका है।
नेशनल अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (national crime record bureau) की वार्षिक रिपोर्ट से जेलों में बंद कैदियों की कुल संख्या का पता चलता है, वहीं रिपोर्ट कैदियों की जाति, धार्मिक बैकग्राउंड की भी जानकारी देती है। इस रिपोर्ट के हवाले से मोटा अनुमान है कि जेलों में 70 फीसदी कैदी अनुसूचित जाति/ जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं। हालांकि विशेषज्ञों की राय है कि वास्तविक आंकड़े ज्यादा हो सकते हैं।
मालूम हो राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ओडिशा में बतौर विधायक जेलों में सुधार संबंधी होम स्टैंडिंग कमेटी की चेयरपर्सन रही हैं। उन्होंने कहा भी कि वे प्रदेश की विभिन्न जेलों में वहां के हालात जानने के लिए गईं। हालांकि उन्हें ऐसा करने के लिए नहीं कहा गया था, उन्होंने स्वप्रेरित होकर यह कदम उठाया था। महामहिम के अनुसार मैं जानना चाहती थीं कि वे लोग कौन हैं, उनके साथ जेलों में क्या घट रहा है और वे वहां कैसे खुद को कायम रखते हैं। बतौर स्टैंडिंग कमेटी चेयरपर्सन राष्ट्रपति मुर्मू ने ऐसा कुछ किया, जैसा कि न्यायधीश नियमित अंतराल पर करते हैं। कैदियों के संरक्षक के नाते न्यायपालिका का यह दायित्व है कि वह कैदियों की स्थिति पर नजर रखे और उनके अधिकारों के उल्लंघन को रोके।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एन.वी. रमना ने अपनी सेवानिवृत्ति से कुछ ही हफ्ते पहले, जयपुर, राजस्थान में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) की बैठक में कहा था- हमारी न्याय प्रणाली में, प्रक्रिया एक सजा है। जल्दबाजी में की गई अंधाधुंध गिरफ्तारी से लेकर जमानत प्राप्त करने में कठिनाई तक, विचाराधीन कैदियों को लंबे समय तक कैद में रखने की प्रक्रिया पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके बाद न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इस महीने की शुरुआत में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद संभालते हुए घोषणा की थी कि शीर्ष अदालत जमानत के मामलों को प्राथमिकता के आधार पर देखेगी।