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Editorial: आपातकाल का लगना अपने आप में संविधान की हत्या ही था

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The imposition of emergency was in itself a murder of the constitution: यह समझे जाने की जरूरत है कि आखिर केंद्र की मोदी सरकार को 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाए जाने की अधिघोषणा क्यों करनी पड़ी है। आखिर हम उस दिन को कैसे भूल सकते हैं, जब संविधान की पूरी तरह से अनदेखी करते हुए, उसके अध्यायों का तिरस्कार करते हुए जनता की आजादी को कैद कर दिया गया था। 25 जून 1975 का वह दिन देश के इतिहास में सदैव ऐसे अंधेरे दौर के रूप में जाना जाएगा, जब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाले देश में नागरिकों की आजादी को खत्म कर दिया गया था और ऐसा तत्कालीन कांग्रेस सरकार की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से किया गया। वास्तव में यह विषय अंतहीन बहस का है, लेकिन इसका सार एक लाइन का यह है कि आखिर उस दिन को और उस दौर को कैसे भुलाया जा सकता है। तब क्या यह जरूरी नहीं है कि उस फैसले की कड़वी स्मृति को मौजूदा और आगामी पीढ़ी के ध्यान में लाने के लिए ऐसा कुछ सख्त निर्णय लिया जाए।

बेशक, यह एक राजनीतिक फैसला है और हालिया लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस एवं उसके सहयोगी दलों की ओर से भाजपा पर सत्ता में आने के बाद संविधान बदल देंगे के आरोपों की काट के लिए ऐसा किया गया है। लेकिन वस्तुस्थिति यही है कि देश में लोगों को गुमराह होने से रोकने के लिए यह बताना जरूरी है कि इसी आजाद देश के इतिहास में वह दौर भी था, जब इसी संविधान के एक प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने नागरिकों की संवैधानिक आजादी को छीन लिया था। और अब उस बात को भुलाकर जनता को गुमराह करते हुए वोट हासिल कर केंद्र में सत्ता प्राप्ति के प्रयास किए जा रहे हैं।

लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान कांग्रेस ने इसे अपने हथियार की तरह इस्तेमाल किया है कि अगर भाजपा फिर से सत्ता में आई तो वह संविधान बदल देगी। देश की जनता के समक्ष बार-बार संविधान की वह डायरीनुमा पुस्तक दिखाई गई। हालांकि जनता ने एक बात को बार-बार सुना तो यही समझा कि हां ऐसा कुछ हो सकता है। लेकिन कोई यह नहीं बता सका कि आखिर दो कार्यकाल पूरा कर चुकी मोदी सरकार ने इस दौरान तो संविधान को नहीं बदला। क्या अनुच्छेद 370 को खत्म करना संविधान बदलना कहा जाएगा। क्या समान नागरिक संहिता जिसका वर्णन संविधान में है, की बात करना संविधान बदलना है। क्या मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से निजात दिलाना संविधान बदलना है।

क्या अदालती मामलों के लिए नए कानूनों को लेकर आना संविधान बदलना है। क्या इस धारणा पर कोई यकीन करेगा कि यह देश किसी एक व्यक्ति, दल या सरकार की वजह से नहीं चल रहा है, अपितु यह देश के हर उस नागरिक की इच्छा के मुताबिक चल रहा है, जोकि यहां रह रहा है। हालांकि जिन्हें निर्देशन की आवश्यकता होती है और जिन्हें गुमराह होने से बचाने की जरूरत होती है, उन्हें यह समझाना आवश्यक होता है कि क्या किया जाना चाहिए। हालांकि राजनीति के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोग अच्छी तरह जानते हैं कि अपने प्रभाव का दुरुपयोग कैसे करना है। यही वजह है कि संसद में शपथ लेने के वक्त भी वे संविधान की पुस्तक हाथ में लेने का ढोंग करते हैं। वास्तव में अगर भ्रष्टाचार का अंत हो जाए तो फिर देश के विकास को कोई नहीं रोक सकता। क्या संविधान देश में भ्रष्टाचारियों को ऐसा करने से रोकता है। हां, उन्हें रोका जाता है, लेकिन यह काम सरकार करती है। अब जब मोदी सरकार ने भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई आरंभ की है तो इसे संविधान बदलने जैसी गुमराह करने वाली बातों के परिप्रेक्ष्य में क्यों देखा और देखने को मजबूर किया जा रहा है।

बीते दशक भर के शासनकाल में देश के अंदर जितना बड़ा परिवर्तन आया है, उसके बावजूद जनता की ओर से इस बार एक अल्प बहुमत की सरकार का जनमत दिया गया। वैसे, यह कहा जा सकता है कि देश इस समय भीषण राजनीतिक मोर्चाबंदी से गुजर रहा है। यह कैसी विडम्बना है कि राजनीतिक फैसलों की काट के लिए फैसले सत्ता में आकर लेने पड़ रहे हैं। ऐसे में प्रतिशोध का यह दौर कब खत्म होगा। लोग कहते हैं कि कोई नफरत फैला रहा है, लेकिन आखिर इसका बीज बोया किसने कहा था। क्या दादा के गुनाह की सजा पोते या फिर उसके बच्चों को भी नहीं भुगतनी पड़ती? और फिर अपने इतिहास को हम कैसे भुला सकते हैं?

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