पूरा कुटुंब ही आजादी का परवाना था शहीद रामचन्द्र का
Special on the martyrdom of Bal Veer
‘बाल-वीर की शहादत पर विशेष’
अब हम 78वें स्वतंत्रता दिवस में प्रवेश करने जा रहे हैं। याद रखें, अनगिनत वीरों और वीरांगनाओं की कुर्बानियों व संघर्ष की बदौलत हमें आजादी की वह सुबह नसीब हुई थी। क्या बूढ़े, क्या बच्चे, जवान, महिलाएँ सब अपने प्राणों का मोह त्यागकर स्वतंत्रता-समर में कूद पड़े थे। कितने ही अनाम शहीद और लड़ाके थे जिन्हें हम जानते बेशक ना हों मगर उनका प्रदाय अमूल्य व अवर्णनीय है।
देवरिया जनपद एक ग्राम-युगल है, जिसे ‘नौतन-हथियागढ़ कहा जाता है। इसी हथियागढ़ में बाबूलाल प्रजापति के घर में जन्मा था रामचन्द्र जिसने अपने अदम्य साहस, अटूट इरादे तथा देशभक्ति की विराट भावना से लबरेज होकर देवरिया कलेक्ट्रेट पर स्वदेशी तिरंगा फहरा दिया था और इसी कारण उसने हुंकार कर अपने सीने पर फिरंगी की गोलियाँ झेलते हुए अपनी अमर शहादत दी थी। तरह वर्ष का यह छोटा सा बालक इतना संकल्पी, जुनूनी और बेखौफ क्रांतियोद्धा कैसे बना होगा, सोचिए तो जरा!
असल में रामचन्द्र का पूरा परिवार ही आजादी का परवाना था। इसके दादा जी भरदूल प्रजापति व पिता जी बाबूलाल दोनों सन् 1921 से ही कांग्रेस के ‘चवन्निया सदस्य’ बन गए थे। बाबूलाल तो बाद में क्रांतिकारियों के सम्पर्क में भी रहे। उनको धन, भोजन व सहयोग भी देते रहे। इसी कारण पुलिस ने उन्हें कई बार पकड़ा व एक बार तो उन्हें भयंकर यातनाएँ भी दी। रामचन्द्र के चाचा दमड़ी उस समय अंग्रेजी फौज में भर्ती हो गए थे बाद में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से प्रभावित होकर वे भी अपने साथियों ख़ूबन लोहार व पड़ोही सैंथवार के साथ फौज छोड़कर भाग आए। फौज से भगौड़ा होने पर सरकार ने उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने का फरमान जारी कर दिया था। इसी कारण वे 15 अगस्त 1947 तक अर्थात लगभग पांच साल तक भूमिगत रह कर जीवन बिताते रहे। दादा, चाचा, पिता सभी के संघर्ष का प्रभाव रामचन्द्र पर पड़ा इसलिए वह अल्प-वयस होते हुए भी देश की आजादी के प्रति समर्पित हो गया था।
9 अगस्त सन् 1942 को गांधी जी द्वारा प्रस्तावित ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू हो गया। देश के कोने-कोने में यह आंदोलन फैल गया। इसकी लौ पूर्वोत्तर भारत में भी फैली। यहाँ के स्थानीय लोगों ने उस समय के कांग्रेस जिलाध्यक्ष अयोध्याप्रसाद प्रजापति व प्रधानाध्यापक यमुना सिंह रावत के नेतृत्व में 14 अगस्त 1942 को देवरिया कलेक्ट्रेट पर प्रदर्शन करने की योजना बनाई। उस समय के विख्यात ‘जूनियर हाई स्कूल बंसन्तपुर धूसी’ से आंदोलनकारियों का दल देवरिया के लिए पैदल मार्च करता हुआ चल पड़ा। इस दल के आगे-आगे हाथ में तिरंगा थामे रामचन्द्र चल रहा था। कलेक्ट्रेट पर पहुंचने के बाद भीड़ उसके पीछे स्थित रामलीला मैदान में इकट्ठी हो गई, जिस पर पुलिस ने अचानक लाठीचार्ज कर दिया। भीड़ तितर-बितर हो गई। भटकता हुआ रामचंद्र कुछ देर बाद में अपने साथियों के साथ फिर से कलेक्ट्रेट के सामने आ गया। कलेक्ट्रेट पर लहराते यूनियन जैक को उतारकर अपना तिरंगा फहराने का इरादा उसने कर लिया। फिर कलेक्ट्रेट के पीछे से अपने साथियों हवलदार, रामदेव आदि की सहायता से उसके ऊपर चढ़ गया। ऊपर चढ़कर उसने ‘यूनियन जैक’ यानी अंग्रेजों का झंडा उतार फैंका और उसकी जगह अपना तिरंगा फहरा दिया। पुलिस ने देखा तो उसे यूनियन जैक वापस लगाने की चेतावनी दी। पर वह नहीं माना, बल्कि साहस, जुनून व देशभक्ति की पराकाष्ठा दिखाते हुए उसने अपनी छाती खोलकर सिपाहियों के सामने कर दी। उसकी इस हिम्मत पर बुरी तरह बिफरे जॉइंट मजिस्ट्रेट उमराव सिंह ने उसके सीने में गोली मार दी। साथ ही उसके साथ खड़े सिपाही ने भी रामचन्द्र पर गोली चला दी। दो-दो गोलियाँ खाकर रामचंद्र गिर पड़ा। पर उसे नीचे जमीन पर नहीं गिरने दिया गया अपितु साथ आए लोगों ने अपने इस लाड़ले जांबाज को अपनी बाहों में थाम लिया। कुछ समय बाद वहीं रामचंद्र की शहादत हो गई।
पूरा देश आज भी अपने इस नन्हे सरफ़रोश को गर्व व सम्मान के साथ याद करता है। इस वीर की पूरी कहानी आप डॉ. कंवल किशोर प्रजापति द्वारा लिखित जीवनी-परक उपन्यास ‘वह नन्हा सरफ़रोश- शहीद रामचन्द्र विद्यार्थी’ में पढ़ सकते हैं। यह उपन्यास ‘गौतम प्रकाशन शाहदरा- दिल्ली’ से छपा है। आजादी के इस पावन पर पर्व पर अपने तमाम स्वतन्त्रता सेनानियों सहित इस बाल शहीद रामचन्द्र विद्यार्थी को अपनी भाव भरी श्रद्धांजलि अर्पित करें।
लेखक: डॉ. कंवल किशोर प्रजापति (वह नन्हा सरफ़रोश- शहीद रामचन्द्र विद्यार्थी के लेखक)