धर्म का मूल आधार सम्यग्दर्शन आचार्य सुबल सागर जी महाराज

धर्म का मूल आधार सम्यग्दर्शन आचार्य सुबल सागर जी महाराज

Acharya Subal Sagar Ji Maharaj

Acharya Subal Sagar Ji Maharaj

Acharya Subal Sagar Ji Maharaj: जिस प्रकार महल का मूल आधार नीव है और वृक्ष का मूल आधार पाताल तक गई हुई उसकी जड़े है उसी प्रकार धर्मरूपी महल अथवा,धर्मरूपी वृक्ष ठहर नहीं सकता है। जीवरक्षा रूप आत्मा की परणति को दया कहते है, वह दया ही धर्म का लक्षण है।

सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट प्राणी भ्रष्ट कहे जाते हैं, सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट-प्राणी को मोक्ष नहीं प्राप्त होता। चारित्र से भ्रष्ट प्राणी तो मोक्ष प्राप्त कर सकते है सिद्धि प्राप्त कर सकते है लेकिन सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट नहीं कर सकता है । तीन लोक रूप भवन का प्रकाशक होने से सम्यक्त्व रूप रत्न ही समस्त पदार्थों में उत्तम वस्तु है।

 सम्यक्त्व रूपी रत्न से भ्रष्ट मनुष्य भले ही अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हों तो भी जिनवचनों की श्रद्धा से रहित होने के कारण वहीं के वहीं अर्थात् उसे चतुर्गति रूप संसार सागर में परिभ्रमण करते है।

जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से पतित हैं वे भले ही अतिशय कठिन से कठिन उपवास, व्रत, नियम आदि विशिष्ट तपों का आचरण करते रहें तो भी हजार करोड़ वर्षों में भी रत्नत्रय बोधि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं ।

जिनवाणी में कहा हुए तत्त्व का स्वरूप क्या है अरिहंत भगवान ने जिनवाणी में जो वस्तु उसी स्वरूप बताया है वह जैसा बताया है उसी प्रकार से मानना विश्वास करना, श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। जिसके  ह्रदय में सम्यक्त्व रूपी जल का प्रवाह निरन्तर प्रवाहित रहता है, उसका कर्म रूपी बालू का बाँध बद्ध होने पर भी नष्ट हो जाता है जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है। ज्ञान से भ्रष्ट है, और चारित्र से भ्रष्ट ही वे भ्रष्टों में विशिष्ट भ्रष्ट है अर्थात् वे अत्यन्त भ्रष्ट हैं और अन्य मनुष्यों को भी भ्रष्ट कर देते हैं।

यह उपदेश आचार्य श्री सुबलसागर जी महाराज ने दिगम्बर जैन मंदिर सेक्टर 27बी में सभा में उपस्थित लोगों को धर्म का पान कराया। सायं कालीन बेला में आचार्य के सानिध्य में श्री 1008 आदिनाथ भगवान की आराधना करते हुए भक्तांबर स्त्रोत दीप अर्चना में आज का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

यह जानकारी श्री धर्म बहादुर जैन जी ने दी।

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