माता विंध्यवासिनी का पावन धाम सलकनपुर जहां पूरी होती हैं हर मनोकामना, देखें क्या है खास
- By Habib --
- Monday, 07 Apr, 2025

Salkanpur the holy place of maa Vindhyavasini
मध्यप्रदेश की हृदयस्थली पुण्य सलिला मां नर्मदा के तट होशंगाबाद से सीहोर जिला सटा है। सीहोर जिले की बुदनी तहसील से 25 किलोमीटर और होशंगाबाद से 35 किलोमीटर दूरी पर विंध्याचल की हसीन वादियों में प्रकृति ने अपनी अनमोल छटा बिखेर रखी है, जहां देवीधाम सलकनपुर है।
चारों ओर मनोहारी पर्वत श्रृंखलाएं हैं जिनमें एक पर्वत पर मां विंध्यवासिनी विजयासेन देवी का भव्य मंदिर बना हुआ है। शारदीय और चैत्रीय नवरात्रि में मां की चौखट पर माथा टेकने दूरदराज से लाखों लोग आते हैं और हरियाली से भरे इस 800 फीट ऊंचे पर्वत पर अलौकिक सौंदर्य के बीच मां की सुंदर प्रतिमा के दर्शन, परिक्रमा, वंदना, स्तुति कर अपने मन की मुरादें पूरी पाते हैं।
ऐतिहासिक रूप से पौराणिक कथाओं के आधार पर श्री नर्मदा परिक्रमा और नर्मदा तीर्थों का सेवन महाभारत काल से पूर्व से इस विजयासन शक्तिपीठ की प्रसिद्धि रही है। इस संदर्भ में स्कंद पुराण के अवंति खंड के रेवा खंड में वर्णित नेमावर तीर्थ को नाभि क्षेत्र कहा गया है और उसके बाद जिस सिद्धेश्वर वैष्णवी देवी तीर्थ का उल्लेख है, वह विंध्य पर्वत पर विराजमान मां विजयासन देवी का स्थान है।
कूर्म पुराण में तीर्थक्रम की व्याख्या में नर्मदा के उत्तर तट पर विंध्य पर्वत श्रेणी पर यशोदाजी की पुत्री का विराजित होना तथा सिद्धेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध होने का प्रमाण है। शिव पुराण में पार्वती के जन्म के पूर्व देवताओं ने जो प्रार्थना की, उसमें विंध्यवासिनी, विजया, सिद्धेश्वरी नाम से देवी का गुणगान किया है।
भगवान श्रीकृष्ण की बहन की स्तुति एवं चर्चा विजया देवी के नाम से अनेक पुराणों में है जिससे स्पष्ट है कि पौराणिक कथाओं के आधार पर नर्मदा क्षेत्रीय तीर्थ सलकनपुर में जो विजया शक्तिपीठ है, वह अतिप्राचीन और पौराणिक मान्यताओं में देवीधाम सलकनपुर के विजयासन शक्तिपीठ की स्वयंभू घोषणा को प्रमाणित करता है। मान्यता है कि यह मंदिर 6,000 साल पुराना है, जहां जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंचने पर इस मंदिर का जीर्णोद्धार अनेक बार किया जा चुका है। इसकी व्यवस्था भोपाल नवाब के संरक्षण में होती थी तब वहां पर अखंड धूनी और अखंड ज्योति स्थापित की जा चुकी थी, जो सालों से आज भी प्रज्वलित है। गर्भगृह में देवी की प्रतिमा स्वयंभू है जिसे किसी के द्वारा तराशा नहीं गया, परंतु बाद में चांदी के नेत्र एवं मुकुट आदि से देवी को सजाया गया है।
विजयासन देवी की प्रतिमा के दाएं-बाएं जो 3 संगमरमर की मूर्तियां हैं, उनके विषय में मान्यता है कि गिन्नौर किले के वीरान होने पर एक घुम्मकड़ साधु इन्हें यहां पर ले आया था। स्वतंत्र भारत की मध्यप्रदेश विधानसभा ने 1956 में इस मंदिर व्यवस्था का पृथक से अधिनियम बनाया, जो 1966 में लागू हुआ तथा मंदिर की व्यवस्था प्रजातांत्रिक तरीके से गठित समिति के हाथों में आई। सलकनपुर देवीधाम में जहां मां विजयासन का मंदिर है, वह धरातल से 800 फुट की ऊंचाई पर है जिसमें पत्थर की 1,065 सीढय़िां चढक़र विंध्याचल पर्वत के उच्चासन पर विराजमान मां के दर्शन करने का लाभ प्राप्त होता है। 2003 के बाद मंदिर ट्रस्ट के द्वारा मंदिर तक पहुंचने के लिए पहाड़ी को काटकर सडक़ मार्ग से व्यवस्था की गई है जिसमें 500 वाहन प्रतिदिन मंदिर तक पहुंचने की व्यवस्था है तथा उक्त वाहनों की पार्किंग व्यवस्था भी की गई है।
सलकनपुर देवीधाम पहुंचने के लिए रेलमार्ग द्वारा होशंगाबाद रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड सहित सीहोर जिले के बुदनी स्टेशन उतरकर वहां से बस द्वारा जाया जा सकता है। इसके अलावा माता के दर्शनों के लिए भोपाल से 70 किलोमीटर सडक़ मार्ग से आया जा सकता है, वहीं औबेदुल्लागंज से 35 किलोमीटर सडक़ मार्ग से भी मंदिर पहुंच सुविधा प्राप्त की जा सकती है।
शारदीय एवं चैत्रीय नवरात्रि के मौके पर रोजाना भोपाल, इटारसी, होशंगाबाद, पिपरिया, सोहागपुर, बैतूल आदि स्थानों से 200 किलोमीटर की दूरी भक्तगण टोलियां बनाकर गाते-बजाते पैदल ही आते हैं और सुबह 4 बजे की आरती में शामिल होकर स्वयं को धन्य पाते हैं।
भक्तों का कहना है कि जब तक मां के दरबार से बुलावा नहीं आता, कोई भी उनके दर्शन नहीं पा सकता है। इसलिए जो दर्शन को बार-बार आते हैं, वे स्वयं को भाग्यशाली मानते हैं। चैत्रीय और शारदीय नवरात्रि में पूरे 9 दिनों तक भक्तों की भीड़ होती है और प्रतिदिन 1 से लेकर 5 लाख तक भक्तगण मां के दर्शनों की कतार में होकर दर्शन पाते हैं। भक्तों का कहना है कि मां विजयासन उनकी मनोकामनाएं पूरी करती हैं तभी हजारों की संख्या में प्रतिदिन पैदल ही मां का ध्वज हाथों में उठाए ‘जय बोलो शेरावाली का’, ‘सांचे दरबार की जय हो’ के उद्घोष के साथ भरी दोपहरी हो या ठंड हो, ये भक्त नंगे पांव, पांव में छाले पडऩे के बाद भी परिवार सहित नन्हे-नन्हे बच्चों एवं बुजुर्गों को साथ लिए एक कारवें के रूप में मंदिर की ओर कदम बढ़ाए जाते हैं।
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