Haryana : हमारी सभ्यता और संस्कृति की मांग का सिन्दूर माने जाते हैं मटियारे चूल्हे, चूल्हे का नाम जेहन में आते ही मां के हाथ से बनी रोटी का स्वाद बताने लगती है दांतों के बीच बसी जीभ, जली रोटी में भी झलकता है मां का आशीर्वाद और प्यार
- By Krishna --
- Tuesday, 26 Sep, 2023
Matiyare stoves are considered to be the vermillion of the demand of our civilization and culture.
Matiyare stoves are considered to be the vermillion of the demand of our civilization and culture. : सांस्कृतिक, ऐतिहासिक तथा ग्रामीण परिवेश की वास्तविक झांकी चूल्हा अपने जहन में सूचना सामाजिक परिदृश्य समेटे हुए है।बेशक वर्तमान में चूल्हे के कई बदले हुए रूप सामने आए है।लेकिन प्राचीन काल से ही चूल्हे समाज में लोगों के जीवन आधार का मुख्य आकर्षण रहा है।
चूल्हे की उत्पत्ति कब और कैसे हुई इस बात का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है,परन्तु गहन चिन्तन करके इतिहास के गर्भ में झांककर देखा जाए तो पता चलता है कि इसका विकास वक्त की जरूरत के अनुसार हुआ। चूल्हे व हारे आदि काल से ही मानव की जरूरत का आधार रहा है। आज भी चूल्हा समाज में किसी ना किसी ना किसी रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो रामायण और महाभारत में चूल्हे का या फिर अपभ्रंश रूपों को वर्णन आता है। यहां तक कि देवों ने भी चूल्हे की महिमा का वर्णन किया है। सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ चूल्हे के समरूपों में भी परिवर्तन हुआ। परन्तु किसी न किसी रूप में चूल्हा समाज में आज भी अपनी अलग पकड पहचान बनाए हुए है।
कैसे बनाती है महिलाएं चूल्हे: परंपरागत चूल्हे बनाने के लिए गृहणियां कच्ची मिट्टी,गोबर तथा ईटों का प्रयोग करती है,क्योंकि गृहणियां चुल्हे-हारे बनाने में पारंगत होती है,इसलिए उन्हें पहचान होती है कि किस प्रकार की मिट्टी से बने चूल्हे व हारे अधिक दिनों तक चल सकते हैं, इसलिए वे इनके बनाने के लिए अधिकतर चिकनी मिट्टी का ही प्रयोग करती है। मिट्टी में थोडी तूडी या गोबर मिलाकर मिश्रण को सान लिया जाता है फिर रेत या भूसा नीचे डालकर उस पर चूल्हा बनाया जाता हैं। यदि केवल मिट्टी का ही चूल्हा बनाना हो तो इसके लिए दोमट मिट्टी अधिक लाभदायक होती हैं। इसे भी नीचे रेत डालकर बनाया जाता है ताकि सूख जाने पर इसे आसानी से उठाकर दूसरे स्थान पर रखा जा सके, फिर उस पर आवश्यकतानुसार मिट्टी का लेप कर लिया जाता है।कुछ गृहणियां चूल्हा बनाने के लिए ईंटों का प्रयोग भी कर लेती हैं।वर्तमान दौर में तो गैस के चूल्हे का प्रचलन बढ़ चला है लेकिन देहात में आज भी कई परिवार विशेषकर खेती से जुड़े परिवार किसी न किसी रूप में मिट्टी से बने चूल्हे का उपयोग करते है।
शुद्धता के प्रतीक माने जाते है हारे और चूल्हे-देहात में चूल्हे का साफ सुथरा रखने की प्रथा बहुत पुरानी है,जो वर्तमान में आज भी जारी है।गृहणियां सुबह उठते ही खाना बनाने से पहले चूल्हे पर पोचा लगाकर उसे शुद्ध करती है। पोचे के लिए कुल्हडी में कच्ची मिट्टी का घोल बनाकर रख लिया जाता है,जो प्रतिदिन पोछा लगाने के काम आता हैं।पोचा लगाने की प्रक्रिया से शुद्ध तो मिलती ही है साथ ही चूल्हे या हारे को मजबूती भी मिलते हैं। ग्रामीण आंचल में चूल्हे के आसपास जूते पहनकर जाना अशुभ तथा अशुद्ध माना जाता है। जूते सहित घूमने या फिर अशुद्ध चीजों के साथ आने जाने पर अक्सर बोल उठती है कि ‘‘गाडण जोगे जुते लेकै चूल्हे धोरै कित आग्या इन्ने परान काढ़ दे’’। इस प्रकार चूल्हे चौंके को हरियाणा के ग्रामीण अंचल में बहुत ही पवित्र माना जाता है। कुछ बुजुर्ग महिलाएं आज भी घर में सुबह-सुबह माचिस से आग जलाने की बजाए रात को हारे या चूल्हे भूभल में दबाई गई आग से चूल्हा जलाना पसंद करती हैै।
पलवल से सिरसा फतेहाबाद और महेंद्रगढ़ नारनौल से लेकर पंचकूला तक चूल्हे का जादू आज भी है बरकरार: वैसे समूचे भारत में विशेषकर देहात में चूल्हे की चौधर देखने को मिलती है। हरियाणा की बात करे तो पलवल से सिरसा फतेहाबाद तक और महेंद्रगढ़ नारनौल से लेकर पंचकूला तक चूल्हे का जादू आज भी बरकरार है। चूल्हे कई प्रकार के होते है,जिन्हें स्थाई,में,अंगूठी,चूल्हे मुख्य है। इस विषय को लेकर जिला कैथल के गांव रसीना की रहने कैलाशो देवी और सुरेश देवी ने एक बातचीत के दौरान बताया कि स्थाई चूल्हे ऐसे होते है जो एक ही जगह स्थित होते है जबकि ठामें चूल्हे को इधर-उधर रखा जा सकता है। वर्षा के समय स्थाई चूल्हे, हारों को भीगने से बचाने के लिए परांत,तसले या फिर पतरे से ढक दिया जाता है,जबकि ठामें चूल्हे को आसानी से छाया में रखा दिया जाता है। वैसे वर्षा ऋतु में अधिकतर ठामे चूल्हें का प्रयोग किया जाता था लेकिन अब गैस का ही अधिक प्रयोग किया जाता है। कैलाशो बताती है कि हारे में भी चूल्हे की भांति गृहणियां बहुत काम लेती है, हारों में दलिया, खिचडी, बिनौले, दूध आदि रखा जाता है।
कलायत निवासी जे एस राणा ने एक भेंट के दौरान कहा कि चूल्हे हारे पर धीमी-धीमी आंच में बने पकवान काफी स्वादिष्ट,स्वास्थ्यवर्धक होते है, उनमें उर्जा काफी मात्रा में उपलब्ध होती है। आजकल हर घर में गैस की सुविधा उपलब्ध है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्ज्वला स्कीम के तहत लाखों परिवारों को गैस कनेक्शन देकर नए बढय़िा काम किया है। यह देश के लिए विशेषकर नारी शक्ति के लिए बहुत बडी उपलब्धि है। सोनीपत के गांव जंआ की संतोष और धर्मपाल का कहना है कि आजकल बेशक रसोई गैस का प्रचलन अधिक है,लेकिन गांव में आज भी विकल्प के तौर पर मटियारे चूल्हों का प्रयोग किया जाता है। जींद के रामराय की सुनीता बाजवान ने कहा कि जब से होश संभाला है चूल्हे और हारे पर ही खाना बनता रहा है। वैसे घर में गैस की सुविधा कई सालों से है लेकिन डांगर ढोर रखने है तो चूल्हे हारे भी रखते होंगे।
देहात की रसोई से आज भी परोसे जाते है चूल्हे पर बने पकवान, तत्कालीन भारत सरकार ने 1983 में शुरू किया था उन्नत चूल्हे का कार्यक्रम
उल्लेखनीय है कि उन्नत चूल्हे का कार्यक्रम 1983 में भारत सरकार ने शुरू किया था। प्राप्त जानकारी के अनुसार लाखों लोगों ने इस योजना का लाभ उठाया लेकिन हरियाणा में यह कार्यक्रम इतना सफल नही हो पाया क्योंकि गैस के प्रचलन से वह कार्यक्रम को फीका ही रहा। ये भी सच्चाई है परम्परागत चूल्हे से कंई प्रकार की बिमारी फैलने का खतरा बना रहता है लेकिन गैस के प्रयोग से सांस,दमा,खांसी,आंखों की बीमारियों तथा कैंसर जैसी प्राणघातक बीमारियों के फैलने का खतरा नहीं रहता है। पहले देश में पैदा होने वाला अधिकतर ईंधन खाना बनाने में प्रयोग किया जाता था। लेकिन कुकिंग आने से इंधन की भारी बचत हुई है। उन्नत चूल्हा कार्यक्रम के अंतर्गत सरकार द्वारा कई प्रकार के चुल्हों का प्रचलन था,जिसमें सामुदायिक,सफरी व स्थिर चूल्हे बनते थे। सामुदायिक चूल्हे पर सैकड़ों व्यक्तियों के लिए खाना एक साथ बनाया जा सकता था। इस प्रकार के चूल्हों के प्रयोग से ईंधन की काफी बचत होती है। ऐसे चुल्हे गुरूद्धारों,धार्मिक स्थलेंों अस्पतालों,सैनिक छावनियों तथा पूलिस लाईनों मे अधिक प्रयोग किए जाते रहे हैं। आजकल गैस की कोई कमी नहीं है। अधिकतम कार्य गैस पर ही होते है।
चूल्हे पर बने खाने की बात चलते ही याद आने लगते है नातियों के नाते
अतीत में झांककर देखा जाए तो पता चलता है कि आयूर्वेदिक दृष्टिकोण से चूल्हेे व हारे में बना खाना उर्जा से भरपूर होता है। चुल्हे के आसपास घरों में थाली परांत,पटडी, मोमबती, कडछी, चिमटा, कोंचा, चकला, बेलन, कुण्डी, कुतका, चाकु, गोसे, करसी, बरकुले, माचिस, फुकणी इत्यादि रखें होते है,जिनका गुहणियां अवश्यकतानुसार प्रयोग करती है। बेशक कुकिगं गैस का प्रचलन बढ गया है आज घर धर में गैस से खाना बनता है लेकिन देश के दुर दराज के इलाकों में गैस के साथ साथ परम्परागत चूल्हों का प्रचलन आज भी जारी है। वैसे भी चुल्हे की बात चली है तो मां दादी बहन बुआ ताई चाची भाभी नानी पडदादी पडनानी की याद याद आना स्वाभाविक है। वर्तमान में नई पीढ़ी की बात करें तो चूल्हों की बात तो छोडिए युवा पीढ़ी रिश्तों के बारे में बेखर सी होने लगी है। लेखक का लेख लिखने का उद्देश्य यह नहीं कि आप फिर से परंपरागत चूल्हे पर खाना बनाएं। अपने गांव कलायत में करीब 80 वर्षीय बुजुर्ग सुल्तान ंिसह और सहपाठी जसवंत सिंह के पास बैठने का मौका मिला। चूल्हे की बात चली तो सुल्तान सिंह ने कहा कि जमाना बदल गया है। चूल्हे का महत्व ज्यों का त्यों है। सभी के घर सदा चूल्हा चलता रहे, सभी के घर सौभाग्य का सूरज चमकते रहना चाहिए।
खेती से जुड़े परिवार आज भी करते है परंपरागत चूल्हे का प्रयोग
खेती से जुड़े कई परिवार आज परंपरागत चूल्हों का प्रयोग करते है- देहात में आज भी इनके बगेर गृहणियां का गुजारा नहीं चलता। महिलाएं रोजमर्रा के अधिकतर कार्य जैसे बिनौले,दलिया,खिचडी भंडारे के लिए खाद्य सामग्री,अधिक मात्रा में दूध गर्म करना इत्यादि कार्य इसी प्रकार के चूल्हों पर निपटाती है। यही कारण है कि आज भी देहात में पकवान के अधिकतर कार्य परम्परागत हारे चूल्हों पर किए जाते है। कहना न होगा कि मटियारे चूल्हे वर्तमान में भी हमारी संस्कृति की मांग का सिंदूर है तथा रोजमर्रा की जरूरतों को सस्ते में पूरा करते है। कलायत निवासी सुरेश राणा का कहना है कि लगभग सभी घरों में खाना बनाने के लिए गैस है लेकिन खेती और मजदूरी से जुड़े लोगों का चूल्हे के बिना गुजारा नही। डांगर डोर रखे है तो चूल्हे की जरूरत तो पड़ती है है। सारा काम गैस पर नही किया जा सकता। जिला महेंद्रगढ़ के गांव सलूनी की मोनिका यादव भी चूल्हे पर रोटी बनाती दिख रही है, इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि सरकार ने सभी को गैस तो उपलब्ध करवाई है लेकिन महिलाएं बचत को ध्यान में रखते हुए परम्परागत चुल्हो प्रयोग कर ही लेती है। कुछ भी हो परम्परागत चूल्हा समाज में आज भी अपनी पकड बनाए हुए है।
इब घणी लुगाई चुनाव लडैंगी
जिला जींद के गांव रामराय निवासी सुनीता देवी, कलायत की प्रकाशों और सुदेश रानी ने कहा कि गैस ने औरतों की जिंदगी बदल दी है। औरते सारा दिन घर के काम में उलझी रहती थी। सुबह का खाणा,दुध रखना,गोबर पाथणा फिर सांझ नै धार काढणे सो टंटे थे अर इब तै मौज होरी है। पहले डांगर भी ज्यादा हो थे इब तै पहले आली बात कोनी। घर घर में गैस है। इब तै घरां में भी गैस कनेक्शन लाग है आन करो अर तवा धरों,झट से खाना तैयार। खेत क्यार का काम भी सार मशीनी होग्या। पढी लिखी महिला सुदेश का तो यह भी कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी नै नारी शक्ति वंदन कानून बणा कै और रंग ला दिए, इब घणी लुगाई चुनाव लडैंगी।
कुछ साथी कहेंगे, कि भारत चांद पर पहुंच गया लेखक धर्मवीर सिंह चुल्हे की चौखट में फंसा पड़ा है। यह भी सच्चाई है कि कुछ लोग अवश्य कहेंगे कि भारत चांद पर पहुंच गया है और लेखक धर्मवीर सिंह चूल्हे की चौखट में फंसा पडा है लेकिन यह भी मत भूलिए चंद्रयान को चांद पर पहुंचाने वाले वैज्ञानिक और देश को शिखर पर लाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इच्छा शक्ति भी कही ना कहीं चूल्हे पर बनी रोटी से जुड़ी हुई है। बडे बडे अधिकारी मंत्री सेना नायक वैज्ञानिक, कल्पना चावला जैसी कई बेटियों ने दुनिया के धरातल पर अपनी धाक का प्रेरक इतिहास लिखा। हम चूल्हों पर मां के हाथ की रोटी खाकर बड़े हुए है। मुख्य उद्देश्य नई पीढी को हमारी उस व्यवस्था से रूबरू करवाना है कि किन परिस्थिीयों में हमारे बुजुर्गों ने हमें पढ़ा लिखा कर कामयाब बनाया। हमें उन्हें भूलना नहीं चाहिए ताकि वर्तमान और भावी पीढ़ी हमारी संस्कृति में समाहित सामाजिक और नैतिक मूल्यों से सीख लेकर देश और समाज में संस्कृति की संवाहक बनी रहे। इसमें कोई दो राय नहीं चूल्हे की चौधर तो हमेशा बरकरार रहेगी। चाहे मटियारे हो या फिर गैस वाले चुल्हे। गौर तलब है कि आधुनिक चकाचौंध में भी पूर्व से पश्चिम और उतर से दक्षिण तक सीना ताने खडे है मटियारे चूल्हे और हारे।
-धर्मवीर सिंह, डीआईपीआरओ आर