दंडकारण्य वन में आकर भगवान राम ने मारा था पहला राक्षस
भगवान राम के वनवास की कहानियां
stories of ramayan: 14 वर्ष के वनवास के दौरान सबसे ज्यादा समय राम-सीता और लक्ष्मण का इसी वन में बीता। वन में उनके साथ घटी अनेक घटनाओं का बाल्मीकि रामायण में वर्णन है।
दंडकारण्य वन आरंभ हो गया था। घने-घने पेड़ों और झाड़ियों के बीच बनी पतली पगडंडी पर चलते-चलते राम, सीता और लक्ष्मण कमल के फूलों से भरी पुष्करिणी के पास पहुंचे तो उन्हें वेद-मंत्रों की गूंज सुनाई पड़ी। यज्ञ का धुआं वातावरण को सुवासित कर रहा था। राम-लक्ष्मण (Ram, laxman in dandakaranya van) ने धनुष की प्रत्यंचा उतारकर आश्रम में प्रवेश किया। ऋषियों ने तीनों का स्वागत किया। ऋषिगण तीनों का यह रूप देखकर चकित रह गए। वे विनयपूर्वक बोले- आप वन में रहें या नगर में, आप हमारे राजा हैं। हम आपके राज्य में निवास करते हैं। राजा इंद्र का चतुर्थ अंश होता है, प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है। राजा माननीय, पूजनीय और सबका गुरु है। हम यहां घोर वन में रहकर तप करते हैं, ज्ञान का विस्तार करते हैं। यहां जो भी हमारे संपर्क में आता है, हम उसे पवित्र संस्कार देते हैं। हम किसी का कुछ नहीं बिगाड़ते, लेकिन राक्षस हमें चैन से नहीं रहने दे रहे। यहां के वनवासी भी इनके अत्याचारों से पीड़ित हैं। हम क्रोध और इंद्रियों को जीत चुके हैं, अत: हम किसी भी रूप में राक्षसों से संघर्ष नहीं कर सकते। आप हमारे राजा हैं, हमें यज्ञ और तप करने की सुविधा प्रदान कीजिए, यह हमारा आपसे अनुरोध है।
राक्षस ने आकर रोक लिया रास्ता
भगवान राम ने ऋषियों के इस अनुग्रह पर चिंतन किया और प्रात:काल होने पर वे विदा लेकर आगे बढ़ गए। उनके मार्ग में अनेक वन्य जीव आए, इस बीच माता सीता को प्यास लगी। तभी कुछ दूरी पर पक्षियों का कलरव सुन कर आभास हुआ कि पास में कोई जल स्त्रोत है, वे वहां ठहर गए। लेकिन एकाएक लंबे-चौड़े शरीर का एक राक्षस रक्त और चर्बी से गीला व्याघ्र चर्म पहने वहां आ खड़ा हुआ। उसके भारी प्रचंड त्रिशूल में कई जानवर गुंथे हुए थे। वह अट्टहास करके बोला- वाह, सिरों पर जटाजूट बांधे हो और हाथों में धनुष बाण लिए हो। जानते हो, मैं विराध राक्षस हूं, मैं ऋषियों का मांस भक्षण करता हूं। तुम तापस हो, इस परम सुंदरी रमणी का क्या करोगे? अब यह मेरे साथ वनों में विहार करेगी, यह मेरी भार्या (पत्नी) बनेगी, मैं तुम दोनों का खन पी जाऊंगा।
राम बोले- इतना दुख मुझे तब भी नहीं हुआ था
राक्षस विराध ने झपटकर माता सीता को गोद में उठा लिया। यह देख राम के मुख से निकला- लक्ष्मण, राज्य छोड़ने और पिता के मरने से भी मुझे इतना दुख नहीं हुआ था, जितना अब हो रहा है। मेरी पत्नी का स्पर्श और कोई करे इससे बड़ा दुख और क्या हो सकता है? आज कैकयी की मनोकामना पूरी हुई। इस पर लक्ष्मण ने दांत पीसकर कहा- कैकेयी के ऊपर मुझे जो असीम क्रोध हुआ था, उसे मैं निकाल नहीं सका। आज सारा क्रोध इस दुष्ट पर निकालता हूं। विराध राक्षस सीता को बांह से पीसता हुआ राम को चिढ़ा रहा था। लक्ष्मण का बाण उसकी जांघ को छेद गया। राम ने त्वरित गति से सात बाण मारे जोकि राक्षस के शरीर को फोड़ कर बाहर निकल गए।
वह राक्षस राम-लक्ष्मण की ओर भारी त्रिशूल लेकर झपटा, लेकिन राम ने दो बाण मारकर उसका त्रिशूल काट डाला। अब वह उनके और नजदीक आ गया था। तभी दोनों ने खड़ग निकाल लिए। राक्षस ने दोनों भाइयों को अपनी विकराल बांहों में बांधकर घन वन की ओर खींचना आरंभ कर दिया। सीता दोनों बांहें उठाकर विलाप करने लगीं। राक्षसराज, इन्हें छोड़ दो, चाहे मेरे प्राण ले लो।
लेकिन राम और लक्ष्मण ने खड़ग से राक्षस की भुजाएं काटकर उसे धरती पर दे पटका और लात-घूसों की वर्षा कर उसे मारने का प्रयास किया। वह मर ही नहीं रहा था। राम उसकी गरदन पैर से दबाए रखकर बोले- लक्ष्मण गड्ढा खोदो, उसी में इसे दबा देते हैं।
तब तक कुछ वनवासी आ गए। वे हर्ष से नाच उठे। उन्होंने भी गड्ढा खोदने में लक्ष्मण की सहायता की। विराध की टांगें खींचकर उसे गड्ढे में फेंक दिया गया। वनवासियों ने उस पर थूका, फिर मिट्टी डालकर उसे दबा दिया। उसने कई वनवासी बहू-बेटियों को कलुषित किया था और कई को मारकर वह खा गया था।
इस दौरान सीता का सारा शरीर और वस्त्र खून और चरबी से भीगे हुए थे, वे धूल-धूसरित थीं। उन्होंने जलाशय में स्नान कर नए वस्त्र धारण किए। राक्षस से छुए वस्त्रों को उन्होंने जलाशय में बहा दिया। दोनों भाइयों ने भी स्नान कर अपने को शुद्ध किया।
चार के पेड़ों के फूलों ने मोहा मन
बाल्मीकि रामायण में आगे उल्लेखित है कि कई रातें ऋषियों के आश्रम में बिताते हुए राम, सीता और लक्ष्मण ऐसे पर्वतीय प्रदेश में आ गए, जहां कई झरने झर-झर की ध्वनि करते हुए पहाड़ी से नीचे गिर रहे थे। इस प्रदेश में ऐसे पेड़ों की बहुतायत थी, जिनके तने काले और पत्ते घने हरे थे। ये पेड़ बहुत ऊंचे नहीं थे, इनका नाम प्रियाल था। वनवासी इन्हें चार नाम से पुकारते थे। गरमी की ऋतु थी, चार के पेड़ों में फूल खिले हुए थे। यहां ऋषियों की कई कुटियां बनी थीं। राम ने यहीं निवास करने का निश्चय किया। ऋषि पत्नियों ने सीता को द्रोणपुष्पी और साल (साखू) वनस्पति की कोंपलों का साग बनाना सिखाया। अब चार के पेड़ों में फल आ गए थे। पका फल मटमैला और हरी आभा लिए हुए था। एक ऋषि पत्नी के कहने पर सीता ने उसे मुख में रख लिया, रखते ही वह घुल गया। वह बेहद स्वादिष्ट फल था। उसके बीज कठोर और हरे-पीले रंग का था। ऋषि पत्नी के कहने पर सीता ने उस बीज पर पत्थर से प्रहार किया। उसके भीतर से जो गिरी निकली वह थी चिरौंजी। सीता यह देखकर बेहद खुश हुईं, जिस चिरौंजी को वे खीर और अन्य पकवानों में खाती आई हैं, वह ऐसी होती है? उन्होंने बहुत सारी चिरौंजी इकट्टी कर लीं, वनवासी महिलाएं भी उनसे खूब घुलमिल गई थीं।
लक्ष्मण ने सिखायी वनवासियों को रणनीति
यहां भी लक्ष्मण ने रुद्र देवता, जय-जय काली की रणनीति सिखायी। लक्ष्मण को आश्चर्य हुआ जब यहां के वनवासियों ने इस उद्घोष के स्थान पर जय श्रीराम का जयकारा लगाया। वर्षा ऋतु बीतने को थी। वृक्षों के पत्ते हर रंग के प्रतीत हो रहे थे। पास के पारिजात वृक्ष की शाखा पर एक चिड़िया आ बैठती और पता नहीं क्या करती रहती। इसका आकार गौरेया से कुछ छोटा था, उसकी चोंच कुछ वक्र थी। चिड़िया के उड़ जाने पर सीता ने पास जाकर देखा तो वहां तीन-चार पत्तों के किनारों पर चारों ओर छेद किए हुए मिले। अगली बार सीता ने देखा कि किसी लता के तंतु या पुराने वल्कल वस्त्र के धागे से इन छेदों के अंदर से बुनकर एक कटोरी बनाई हुई थी। इस तरह से एक सुंदर घोसले की रचना वहां की गई थी।
अब तक पारिजात में फूल आ गए थे। लाल डंडी वाले सफेद-सफेद फूल। रात से ही सुगंध आने लगती। प्रात:काल फूल सफेद खीलों की भांति बरसने लगते। चिड़िया ने घोसले में अंडे दे दिए थे। इन्हें देखकर सीता प्रसन्न हो गईं। उन्होंने कहा, वाह! इस चिड़िया को तो मैंने पाला है, यह मेरी है।
तब राम ने वह स्थान छोड़ने का निश्चय किया। इस पर सीता ने कहा कि नहीं मेरी चिड़िया का क्या होगा, उसके बच्चे आने वाले हैं।
तब राम बोले- प्रिये, यह पुतुल (चिड़िया) तुम पर निर्भर नहीं है। सृष्टि को अपने ढंग से काम करने दो। इनके मोह के कारण हमारे कार्यक्रम कैसे बदल सकते हैं।
कहां है दंडकारण्य वन
दण्डक वन अथवा दंडकारण्य रामायण में वर्णित एक वन का नाम है। कथा के अनुसार दंडकारण्य विंध्याचल पर्वत से गोदावरी तक फैला हुआ प्रसिद्ध वन है और यहां वनवास के समय श्रीरामचंद्र बहुत दिनों तक रहे थे। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दंडकारण्य पूर्वी मध्य भारत का एक भौतिक क्षेत्र है। करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम में अबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व में इसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं। दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्र प्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। कहा जाता है कि दंडक राक्षस के नाम पर इस क्षेत्र का नाम दंडक वन पड़ा।