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Editorial: देश की आवाज है, अनुच्छेद 370 के खात्मे पर सुप्रीम फैसला  

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आखिरकार देश की सर्वोच्च अदालत ने भी संसद के उस फैसले को सही ठहरा दिया, जिसमें जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया था। शेष भारत से कश्मीर को अलग करने वाले इस अनुच्छेद को खत्म करने पर देश एक वर्ग ने खुशियां मनाई थी, लेकिन एक ऐसा वर्ग भी था, जिसने इस ऐतिहासिक निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। निश्चित रूप से अब उस वर्ग को न केवल पराजय का सामना करना पड़ा है, अपितु पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान को भी यह अच्छे से समझ आ गया है कि भारत के लिए कश्मीर क्या मतलब रखता है।

सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने पूर्ण बहुमत से जिस प्रकार संसद के फैसले को सही ठहराया है, वह देश की मौलिक जनभावना के अनुसार है। इस फैसले के बाद कश्मीर के कुछ राजनीतिक और विपक्ष के कुछ नेताओं की ओर से विपरीत बयान आ रहे हैं, यह समझने की बात है कि अगर अनुच्छेद 370 कायम रहता तो किसका फायदा था और अब अगर उसे खत्म कर दिया गया है तो किसका नुकसान हो रहा है। यह वास्तव में उन लोगों का नुकसान है, जोकि नहीं चाहते थे कि कश्मीर में शांति कायम हो और यह प्रदेश शेष भारत के समान तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़े।

सुप्रीम कोर्ट में इस विवादित अनुच्छेद के खत्म होने के फैसले को मिली स्वीकृति यह बताती है कि कश्मीर अब भारत का सामान्य अंग है। इस अनुच्छेद ने कश्मीर को शेष भारत से काटा हुआ था, इस कटाव की आड़ में कश्मीर के विपक्षी दल अपनी राजनीतिक रोटियां सेकते आ रहे थे। उनके बयान अब भी पाकिस्तान परस्त हैं। वे देश की संसद और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को भी मानने को तैयार नहीं हैं। उनके स्वर पाकिस्तान के प्रति नरम रहे हैं और कश्मीर को भारत से अलग करने की उनकी साजिश को अब बेनकाब कर रहे हैं। यह कितना हैरान करने वाला विषय है कि इन राजनीतिकों ने कश्मीर की तरक्की का रास्ता पाकिस्तान के जरिये गुजरता हुआ ही दिखाई दिया है।

उन्हें भारत के साथ जोड़ना और इसकी मुख्य धारा में आकर विकास के रास्ते पर आगे बढ़ना रास नहीं आया। अब केंद्र में शासित भाजपा की कश्मीर के प्रति सोच की यह कहकर आलोचना की जा रही है कि पार्टी ने अपनी विचारधारा को थोप दिया। हालांकि ऐसे लोग यह नहीं बता पाते कि आखिर इसमें क्या गलत था कि कश्मीर को शेष भारत का अंग बनाया जाए। अनुच्छेद 370 ऐसा विधान था, जोकि कश्मीर के संबंध में अनर्गल ही कहा जाएगा। उसकी प्रासंगिकता क्या थी और उसके होने से कश्मीर को क्या फायदा हो रहा था? वास्तव में यह कश्मीर को अशांत और गुलाम बनाए रखने की सोच का सच था, जोकि अब उजागर हो चुका है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 476 पेज के पन्ने में इस संबंध में फैसला दिया है, यानी यह फैसला एकाएक और भावनाओं में बहकर नहीं दिया गया है, अपितु संविधान की कसौटी पर इसे कसा गया है। अदालत ने संविधान को सर्वोपरि बताते हुए कहा है कि संविधान संवैधानिक शासन की संपूर्ण संहिता है। जम्मू-कश्मीर में संपूर्णता के साथ भारत का संविधान लागू करने के बाद जम्मू-कश्मीर का संविधान निष्क्रिय और व्यर्थ हो गया है। फैसले में यह भी कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर के भारत में शामिल होने का विलय पत्र निष्पादन के बाद और 25 नवंबर 1949 को भारत का संविधान अंगीकार किए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के पास संप्रभु राज्य का कोई तत्व नहीं बचा था। जम्मू-कश्मीर के पास न आंतरिक संप्रभुता थी और न ही बाहरी। इस फैसले का आधार संविधान की कसौटी और तमाम गहन विचार और मत रहे हैं।

हालांकि इस दौरान जम्मू-कश्मीर के हालात को भी मद्देनजर रखा गया होगा, इन हालात में कश्मीर पंडितों का लहू और उनके आंसुओं के दरिया भी बहते देखे गए होंगे। इस फैसले को देने वाले पांच जजों की संविधान पीठ में जस्टिस संजय किशन कौल भी शामिल हैं, जोकि कश्मीर पंडित हैं और उनकी अनुशंसा है कि राज्य में 1980 से लेकर अब मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच के लिए एक आयोग का गठन होना चाहिए। वास्तव में जम्मू-कश्मीर की एक-एक इंच जमीन भारत का अंग है, इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिए। अब मोदी सरकार अगर गुलाम कश्मीर को भी भारत का अंग बनाने को प्रतिबद्ध है तो इसका स्वागत होना चाहिए। कश्मीर तब तक अधूरा है, जब तक गुलाम कश्मीर भी उसका हिस्सा नहीं बन जाता।  

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