जयन्ती पर विशेष: महान साधक थे रामकृष्ण परमहंस

Special on Birth Anniversary

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Special on Birth Anniversary: रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। 19 वीं शताब्दी में श्री रामकृष्ण परमहंस एक रहस्यमयी और महान योगी पुरुष थे। जिन्होंने काफी सरल शब्दों में अध्यात्मिक बातो को सामान्य लोगो के सामने रखा। जिस समय हिन्दू धर्म बड़े संकट में फंसा हुआ था उस समय श्री रामकृष्ण परमहंस ने हिन्दू धर्मं में एक नयी उम्मीद जगाई।

रामकृष्ण के जीवन में अनेक गुरु आये पर अन्तिम गुरुओं का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। एक थी भैरवी जिन्होने उन्हे अपने कापालिक तंत्र की साधना करायी और दूसरे थे श्री तोतापुरी उनके अन्तिम गुरु। गंगा के तट पर दक्षिणेश्वर के प्रसिद्व मंदिर में रहकर रामकृष्ण मां काली की पूजा किया करते थे। गंगा नदी के दूसरे किनारे रहने वाली भैरवी को अनुभुति हुई कि एक महान संस्कारी व्यक्ति रामकृष्ण को उसकी दीक्षा की आवश्यकता हैं। गंगा पार कर वो रामकृष्ण के पास आयी तथा उन्हे कापालिक दीक्षा लेने को कहा। रामकृष्ण ने भैरवी द्वारा बतायी पद्धति से लगातार साधना कर मात्र तीन दिनों में ही सम्पूर्ण क्रिया में निपुण हो गये।
रामकृष्ण के अन्तिम गुरु तोतापुरी थे जो सिद्ध तांत्रिक तथा हठ योगी थे। उन्होने रामकृष्ण को दीक्षा दी। रामकृष्ण को दीक्षा दी गई परमशिव के निराकार रुप के साथ पूर्ण संयोग की। पर आजीवन तो उन्होने मां काली की आराधना की थी। वे जब भी ध्यान करते तो मां काली उनके ध्यान में आ जाती और वे भावविभोर हो जाते। जिससे निराकार का ध्यान उनसे नहीं हो पाता था। 

तोतापुरी ध्यान सिद्ध योगी थे। उनको अनुभव हुआ कि रामकृष्ण के ध्यान में मां काली प्रतिष्ठित हैं। उन्होने शक्ति सम्पात के द्वारा रामकृष्ण को निराकार ध्यान में प्रतिष्ठित करने के लिये बगल में पड़े एक शीशे के टुकड़े को उठाया और उसका रामकृष्ण के आज्ञाचक्र पर आघात किया जिससे रामकृष्ण को अनुभव हुआ कि उनके ध्यान की मां काली चूर्ण-विचूर्ण हो गई हैं और वे निराकार परमशिव में पूरी तरह समाहित हो चुके हैं। वे समाधिस्थ हो गये। ये उनकी पहली समाधी थी जो तीन दिन चली। तोतापुरी ने रामकृष्ण की समाधी टूटने पर कहा। मैं पिछले 40 वर्षो से समाधि पर बैठा हूं पर इतनी लम्बी समाधी मुझे कभी नही लगी।

श्री रामकृष्ण परमहंस का जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में कामारपुकुर नामक गांव में 18 फरवरी 1836 को एक निर्धन निष्ठावान ब्राहमण परिवार में हुआ था। इनके जन्म पर ही ज्योतिषियों ने रामकृष्ण के महान भविष्य की घोषणा कर दी थी। ज्योतिषियों की भविष्यवाणी सुन इनकी माता चन्द्रा देवी तथा पिता खुदिराम अत्यन्त प्रसन्न हुए। इनको बचपन में गदाधर नाम से पुकारा जाता था। पांच वर्ष की उम्र में ही वो अदभुत प्रतिभा और स्मरणशक्ति का परिचय देने लगे। अपने पूर्वजों के नाम व देवी- देवताओं की स्तुतियां, रामायण, महाभारत की कथायें इन्हे कंठस्थ याद हो गई थी।

1843 में इनके पिता का देहांत हो गया तो परिवार का पूरा भार इनके बड़े भाई रामकुमार पर आ पड़ा था। रामकृष्ण जब नौ वर्ष के हुए इनके यज्ञोपवीत संस्कार का समय निकट आया। उस समय एक विचित्र घटना हुई। ब्राह्मण परिवार की परम्परा थी कि नवदिक्षित को इस संस्कार के पश्चात अपने किसी सम्बंधी या किसी ब्राह्मण से पहली शिक्षा प्राप्त करनी होती थी। एक लुहारिन जिसने रामकृष्ण की जन्म से ही परिचर्या की थी। बहुत पहले ही उनसे प्रार्थना कर रखी थी कि वह अपनी पहली भिक्षा उसके पास से प्राप्त करे। लुहारिन के सच्चे प्रेम से प्रेरित हो बालक रामकृष्ण ने वचन दे दिया था।

अतः यज्ञोपवीत के पश्चात घर वालों के लगातार विरोध के बावजूद इन्होने ब्राह्मण परिवार में प्रचलित प्रथा का उल्लंघन कर अपना वचन पूरा किया और अपनी पहली भिक्षा उस लुहारिन से प्राप्त की। यह घटना सामान्य नही थी। सत्य के प्रति प्रेम तथा इतनी कम उम्र में सामाजिक प्रथा के इस प्रकार उपर उठ जाना रामकृष्ण की आध्यात्मिक क्षमता और दूरदर्शिता को ही प्रकट करता है।

रामकृष्ण का मन पढ़ाई में न लगता देख इनके बड़े भाई इन्हे अपने साथ कलकत्ता ले आये और अपने पास दक्षिणेश्वर में रख लिया। यहां का शांत एवं सुरम्य वातावरण रामकृष्ण को अपने अनुकूल लगा। 1858 में इनका विवाह शारदा देवी नामक पांच वर्षीय कन्या के साथ सम्पन्न हुआ। जब शारदा देवी ने अपने अठारहवें वर्ष मे पदार्पण किया तब श्री रामकृष्ण ने दक्षिणेश्वर के अपने कमरे में उनकी षोड़शी देवी के रुप में आराधना की। यही शारदा देवी रामकृष्ण संघ में माताजी के नाम से परिचित हैं।

रामकृष्ण परमहंस के पास जो कोई भी जाता वह उनकी सरलता, निश्चलता, भोलेपन और त्याग से इतना अभिभूत हो जाता कि अपना सारा पांडित्य भूलकर उनके पैरों पर गिर पड़ता था। गहन से गहन दार्शनिक सवालों के जवाब भी वे अपनी सरल भाषा में इस तरह देते कि सुनने वाला तत्काल ही उनका मुरीद हो जाता। इसलिए दुनियाभर की तमाम आधुनिक विद्या, विज्ञान और दर्शनशास्त्र पढ़े महान लोग भी जब दक्षिणेश्वर के इस निरक्षर परमहंस के पास आते तो अपनी सारी विद्वता भूलकर उसे अपना गुरु मान लेते थे।

इनके प्रमुख शिष्यों में स्वामी विवेकानन्द, दुर्गाचरण नाग, स्वामी अद्भुतानंद, स्वामी ब्रह्मानंदन, स्वामी अद्यतानन्द, स्वामी शिवानन्द, स्वामी प्रेमानन्द, स्वामी योगानन्द थे। श्री रामकृष्ण के जीवन के अन्तिम वर्ष कारुण रस से भरे थे। 15 अगस्त 1886 को अपने भक्तों और स्नेहितों को दुख के सागर में डुबाकर वे इस लोक में महाप्रयाण कर गये।

रामकृष्ण परमहंस महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। रामकृष्ण का सारा जीवन अध्यात्म-साधना के प्रयोगों में बीता। वे लगातार कई घंटों तक समाधि में लीन हो जाते थे। चैबीस घंटे में बीस-बीस घंटों तक वे उनसे मिलनेवाले लोगों का दुख-दर्द सुनते और उसका समाधान भी बताते।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस के भोले प्रयोगवाद में वेदांत, इस्लाम और ईसाइयत सब एक रूप हो गए थे। निरक्षर और पागल तक कहे जाने वाले रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन से दिखाया था कि धर्म किसी मंदिर, गिरजाघर, विचारधारा, ग्रंथ या पंथ का बंधक नहीं है। रामकृष्ण परमहंस मुख्यतः आध्यात्मिक आंदोलन के प्रणेता थे। जिन्होंने देश में राष्ट्रवाद की भावना को आगे बढ़ाया। उनकी शिक्षा जातिवाद एवं धार्मिक पक्षपात को नकारती हैं।
विभिन्न धर्मों के माध्यम से रामकृष्ण के रहस्यमय अनुभवों ने उन्हें यह सिखाने के लिए प्रेरित किया कि विभिन्न धर्म पूर्ण ज्ञान और आनंद तक पहुँचने के अलग-अलग साधन हैं और विभिन्न धर्म पूर्ण सत्य की समग्रता को व्यक्त नहीं कर सकते हैं लेकिन इसके पहलुओं को व्यक्त कर सकते हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिये उनके परम् शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने एक मई 1897 को बेलुड़ में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस मिशन की स्थापना के केंद्र में वेदान्त दर्शन का प्रचार-प्रसार है। रामकृष्ण मिशन के उद्देश्य मानवता के सर्वांगीण कल्याण के लिए काम करना, विशेष रूप से गरीबों और दलितों के उत्थान के लिए।