If the police is alert and impartial then crime can be controlled

Editorial: पुलिस सचेत और निष्पक्ष हो तो अपराध पर लगे अंकुश

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If the police is alert and impartial then crime can be controlled

If the police is alert and impartial then crime can be controlled: देश में आजकल दो मामले हर किसी की जुबान पर हैं, एक कोलकाता के एक अस्पताल में महिला डॉक्टर से रेप एवं उसकी दुर्दांत हत्या और दूसरा महाराष्ट्र के ठाणे जिले के बदलापुर में दो बच्चियों का यौन शोषण। इन दोनों मामलों को लेकर पुलिस और सरकार की तीखी आलोचना हो रही है। कोलकाता के मामले को लेकर तो सुप्रीम कोर्ट ने बेहद तल्ख टिप्पणियां की हैं। इस दौरान सबसे ज्यादा निशाने पर अगर कोई है तो वह स्थानीय पुलिस है। अपराधी ने जो किया वह किया, उसे सजा दिलाने के लिए अब सभी सक्रिय हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि आखिर पुलिस ने क्या किया? माननीय सुप्रीम कोर्ट ने भी यही पूछा है और पूरा देश भी यही जानना चाहता है कि आखिर अपराध घटने के इतनी देर बाद एफआईआर क्यों हुई। और केस दर्ज होने में यह देरी दोनों मामलों में हुई है, जबकि पश्चिम बंगाल टीएमसी द्वारा शासित है और महाराष्ट्र भाजपा एवं शिवसेना एवं सहयोगी दलों के द्वारा शासित है। क्या यह माना जा सकता है कि पुलिस का ढर्रा पूरे देश में अब भी वही है, जिसे बदलने की बात भारतीय दंड संहिता से संबंधित तीन नए कानूनों को अमलीजामा पहनाने वक्त की गई थी।

पहली जुलाई से नई संहिता लागू हुई है और तब यह कहा गया था कि इसके बाद देश में न्याय मांगना और उसे प्राप्त करना आसान हो जाएगा। क्या वास्तव में ऐसा हो गया है। कोलकाता के अस्पताल में रेप एवं मर्डर की शिकार हुई युवती को इसका अहसास था कि उसके साथ ऐसा कुछ घट सकता है, क्या अपराधियों के मन में जरा भी खौफ नहीं था कि अगर संहिता बदल चुकी है और उनका बचना मुश्किल होगा।  

वास्तव में भारतीय पुलिस प्रणाली आजादी के इतने लंबे वक्त के बाद अब भी शैशवावस्था में आती है। अगर इसे और गंभीरता से कहें तो पुलिसिंग में अभी और सुधार की आवश्यकता है, लेकिन उससे पहले उस पूरे तंत्र का विकास भी जरूरी है, जोकि किसी युवती से रेप एवं उसकी हत्या के बाद इस मामले को लेकर अपनी-अपनी तरह से उस पर राजनीति करता है। किसी को इसमें यह इनपुट दिखता है कि इसके जरिये सरकार पर निशाना साधा जा सकता है। वहीं सरकारी तंत्र अपनी खाल बचाने के लिए ज्ञात-अज्ञात को मोहरा बनाता है। एजेंसियां अपना फर्ज पूरा करती हैं, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व को इसकी परवाह नजर नहीं आती कि आखिर उसने ऐसी व्यवस्था को विकसित क्यों नहीं किया, जिसमें कोई अपराध करते हुए डरे और अगर उसने इसे अंजाम दे दिया है तो उसकी तुरंत गिरफ्तारी और उसे अदालत के सामने पेश कर दंड दिलाया जाए।

कोलकाता के मामले में राज्य सरकार पूरी तरह हाथ बांधे नजर आई है। अजीब यह बात है कि जो पुलिस, सीधे मुख्यमंत्री की देखरेख में काम कर रही हो, उसे एक रेप एवं मर्डर केस में एफआईआर दर्ज करने में ही घंटों बीत जाते हैं। यानी किसी को बचाने की पूरी कोशिश की जाती है। यह मामला तो एक डॉक्टर से संबंधित है, देशभर में न जाने कितने ऐसे मामले होंगे जिन्हें यूं ही दबा दिया जाता है, क्योंकि स्थानीय पुलिस गुंडों के प्रभाव में होती है और गुंडे सरकार पर हावी।

दिल्ली में निर्भया रेप केस के वक्त ऐसा ही गुस्सा पूरे देश में था। हर कोई उबल रहा था कि इस तरह का मामला अब आगे नहीं होना चाहिए। अपराधियों को सजा मिली, उनसे उनकी जिंदगी छीन ली गई लेकिन जैसे अपराध कभी नहीं मरता। इस तरह के मामले अब भी सामने आ रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ रहा है कि अगर स्कूल भी सुरक्षित नहीं हैं तो बच्चियां कहां जाएंगी। महाराष्ट्र में भी पुलिस और सरकार का बच्चियों के यौन शोषण मामले में ढीला रवैया कायम रहा, तब हाईकोर्ट को इस पर खुद संज्ञान लेना पड़ा। क्या इसे अजीब नहीं कहा जाएगा। क्या वास्तव में अदालत को किसी मामले पर खुद संज्ञान लेने को मजबूर होना चाहिए, जबकि यह काम तो सरकार एवं उसकी पुलिस एवं एजेंसियों का है कि वे तुरंत एक्शन में आएं और कार्रवाई शुरू करें। भारत में आजकल अपराध के तरीके बदल रहे हैं। अपराधी कहीं ज्यादा दुर्दांत हो गए हैं।

हालांकि इसके साथ ही कानून भी बदले हैं और पुलिस एवं एजेंसियों के पास जांच के संसाधन बढ़े हैं। हालांकि एक चीज की कमी खलती है और वह है संकल्प की। अगर पुलिस का सिस्टम यह समझ ले कि उसका काम हर हाल में जनता को सुरक्षा, सहयोग देना है तो वह सामान्य स्थिति में और अपराध घटने के बाद भी उसी संकल्प के साथ काम करेगी लेकिन अगर इसमें राजनीति हुई तो फिर मामला लटकेगा और अदालतों को स्वत: संज्ञान लेना पड़ेगा। यह देश की सामाजिक एवं प्रशासनिक प्रणाली के लिए उचित नहीं है। ऐसे में पुलिस से क्या उम्मीद की जा सकेगी। जरूरत इसकी है कि पुलिस इतनी सहज, सतर्क और सचेतन हो कि वह निष्पक्षता एवं ईमानदारी से बगैर किसी राजनीतिक पूर्वाग्रह के काम कर सके। क्या ऐसा हो सकता है?

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