हमारे टीवी चैनल कैसे सुधरें ?
How to improve our TV channel?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक : हमारे टीवी चैनलों की दशा कैसी है, इसका पता सर्वोच्च न्यायालय में आजकल चल रही बहस से चल रहा है। अदालत ने सरकार से मांग की है कि टीवी चैनलों पर घृणा फैलानेवाले बयानों को रोकने के लिए उसे सख्त कानून बनाने चाहिए। पढ़े हुए शब्दों से ज्यादा असर, सुने हुए शब्दों का होता है। टीवी चैनलों पर उंडेली जानेवाली नफरत, बेइज्जती और अश्लीलता करोड़ों लोगों को तत्काल प्रभावित करती है। अदालत ने यह भी कहा है कि टीवी एंकर अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए उटपटांग बातें करते हैं, वक्ताओं का अपमान करते हैं, ऐसे लोगों को बोलने के लिए बुलाते हैं, जो उनकी पनपसंद बातों को दोहराते हैं।
अदालत ने एंकरों की खिंचाई करते हुए यह भी कहा है कि वे लोग वक्ताओं को कम मौका देते हैं और अपनी दाल ही दलते रहते हैं। असलियत तो यह है कि आजकल भारत के लगभग सारी टीवी चैनल अखाड़ेबाजी में उलझे हुए हैं। एक-दो चैनल अपवाद हैं लेकिन ज्यादातर चैनल चाहते हैं कि उनके वक्ता एक-दूसरे पर चीखे-चिल्लाएं और दर्शक लोग उन चैनलों से चिपके रहें। हमारे चैनलों पर आजकल न तो विशेषज्ञों को बुलाया जाता है और न ही निष्पक्ष बुद्धिजीवियों को! पार्टी-प्रवक्ताओं को बुलाकर चैनलों के मालिक अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहते हैं। इसीलिए हमारे टीवी चैनलों को, जैसे अमेरिका में पहले कहा जाता था, 'इडियट बॉक्सÓ याने 'मूरख बक्सा' कहा जाने लगा है। भारत के विधि आयोग ने सुझाव दिया था कि भारतीय दंड संहिता में एक नई धारा जोड़कर ऐसे लोगों को दंडित किया जाना चाहिए, जो टीवी चैनलों से घृणा, अश्लीलता, अपराध, फूहड़पन और सांप्रदायिकता फैलाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय और विधि आयोग की यह चिंता और सलाह ध्यान देने योग्य है लेकिन उस पर ठीक ढंग से अमल होना लगभग असंभव है। टीवी पर बोला गया कौनसा शब्द उचित है या अनुचित, यह तय करना अदालत के लिए आसान नहीं है और अत्यंत समयसाध्य है।
कोई कानून बने तो अच्छा ही है लेकिन उससे भी ज्यादा जरुरी यह है कि टीवी चैनल खुद ही आत्म-संयम का परिचय दें। पढ़े-लिखे और गंभीर लोगों को ही एंकर बनाया जाए। उन्हीं लोगों को बहस के लिए बुलाएॅ, जो विषय के जानकार और निष्पक्ष हों। पार्टी-प्रवक्ताओं के दंगलों से बाज आएं। यदि उन्हें बुलाया जाए तो उनके बयानों को पहले रेकार्ड और संपादित किया जाएं। एंकरों को सवाल पूछने का अधिकार हो लेकिन अपनी राय थोपने का नहीं। हमारे टीवी चैनल भारतीय लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभ हैं। यदि इनकी हालत जैसी है, वैसी ही रही तो हमारा लोकतंत्र खोखला भी हो सकता है।