Efforts to maintain the purity of the judiciary are necessary

Editorial: न्यायपालिका की शुद्धता बनाए रखने के प्रयास हैं आवश्यक

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Efforts to maintain the purity of the judiciary are necessary

Efforts to maintain the purity of the judiciary are necessary: देश में न्यायपालिका आजकल दो विभिन्न मामलों की वजह से बीच बहस है। एक मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज की फैसले में टिप्पणी से जुड़ा है वहीं दूसरा मामला दिल्ली हाईकोर्ट के जज के आवास से भारी नकदी के मिलने का है। प्रश्न यही है कि आखिर इतनी बड़ी राशि एक जज के आवास पर आखिर कैसे पहुंच गई। दरअसल, देश में न्यायपालिका ईश्वर से भी ज्यादा शक्तिशाली है और उसके निर्णयों पर बात करना, उनके कार्यों पर सोचना तक पाप की श्रेणी में आता है। अब इस मामले में भी यही हो रहा है, क्योंकि सत्ताधारी राजनीतिक दल ने इस पर टिप्पणी से इनकार कर दिया है, वहीं दूसरे राजनीतिक दल भी चुपी साध चुके हैं। मीडिया बहुत सधे होकर इसका जिक्र कर रहा है।

देश की हवाओं में भ्रष्टाचार की बदबू है, लेकिन अब तो बड़े-बड़े साहसिकों का साहस डांवाडोल हो चुका है तो बोले कौन। खैर एक बार पहले भी ऐसा हो चुका है, जब पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में एक जज के आवास पर नकदी का पैकेट पहुंच गया था। आज तक यह पता नहीं चल पाया है कि आखिर वह पैकेट सच में किसके लिए था। एक सवाल पूछा जा रहा है कि आखिर वे युवा जोकि न्यायपालिका में किसी बड़े ओहदे पर पहुंचने के लिए अपने दिन-रात खफा रहे हैं, आखिर वे इस तरह के प्रकरण से क्या सीखेंगे। क्या हम यह मान नहीं चुके हैं कि कुछ नहीं होने वाला है और ऐसे मामलों की अगर तफ्तीश हो तो न जाने कहां-कहां से और क्या-क्या नहीं निकल सकता है। बेशक, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की आज बात होती हैं, लेकिन क्या सच में इसे खत्म कर दिया गया है। नहीं, जैसे कि फिल्मों में होता है, बुराई कभी नहीं मरती। व फिर जन्म लेती है और अपने अंश को कायम रखती है, उसी प्रकार भ्रष्टाचार खुद को संजोए रखता है।

न्यायपालिका से जुड़ा एक अन्य चर्चित विषय इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज की यौन शोषण से जुड़े मामले में फैसला है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी बच्चे के यौन अंगों को छूना या यौन इरादे से शारीरिक संपर्क से जुड़ा कोई भी कृत्य पॉक्सो एक्ट की धारा 7 के तहत यौन हमला माना जाएगा। वहीं बॉम्बे हाईकोर्ट की एक जज के इसी संदर्भ में आए फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया था। दरअसल, इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज का तर्क है कि एक बालिका के अंगों से छेड़छाड़ और उसके वस्त्र को क्षतिग्रस्त करना दुष्कर्म की कोशिश नहीं है। इस फैसले के संबंध में शब्दों से जैसी कसरत करवाई गई है, वह विचित्र जान पड़ती है।

दरअसल, अब शिक्षा का स्तर बहुत ऊपर पहुंच चुका है, हालांकि अक्सर यह कहा जाता है कि एक अनपढ़ आदमी भी शायद ऐसा नहीं करेगा या सोचेगा। लेकिन ऐसे फैसले हमें यह सोचने को मजबूर कर रहे हैं कि अकेले में, किसी सुनसान जगह पर किसी अबला, बच्ची, महिला के साथ जो वारदात घटती है, फिर वह उसकी शिकायत लेकर थाने और फिर यह मामला जब अदालत में जाता है, तो वहां किस-किस प्रकार से उस अपराध की व्याख्या होती है। वहां किस प्रकार यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि आरोपी ने उस अपराध को अंजाम नहीं दिया और यह उस पर महज आरोप है। जबकि इस दौरान उस अबला ने न जाने कितना कुछ झेल लिया है, जोकि उसके लिए उस वारदात से भी कहीं ज्यादा पीड़ादायक है।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने यौन शोषण के मामलों में इरादे को भी गंभीर और अपराध माना है। वास्तव में यह प्रकरण बड़ी बहस की मांग करता है, अगर हम यह मान लें कि दुष्कर्म जैसा अपराध नहीं हुआ तो क्या इससे इनकार किया जा सकता है कि आरोपी ने दुष्कर्म का इरादा नहीं रखा था। अगर यह अपराध घट जाता तो फिर मामले की धाराएं बदल जाती और तब संभव है, कुछ और तर्क सामने होते।

 फैसले के इतर अदालतों की ओर से ऐसी टिप्पणियां भी चिंतित करती हैं जोकि किसी लिहाज से प्रासंगिक नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट ने देशभर की अदालतों को सुनवाई के दौरान बेहद सतर्क होकर टिप्पणी करने का आदेश दिया था। वैसे भी इन दिनों मामलों की सुनवाई लाइव प्रसारित हो रही है, जिसको देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सुनवाई के दौरान दिए गए बयानों से काफी प्रभाव पड़ता है और प्रतिष्ठा को बड़ी चोट लग सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस सिस्टम को पहले कभी नहीं देखी गई पारदर्शिता करार दिया है। साथ ही मामलों की सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट और निचली अदालतों को सोच समझ कर बयान देने के निर्देश दिए हैं।

वास्तव में यह आवश्यक हो गया है कि बाहरी प्रभावों से न्यायपालिका खुद को संरक्षित करे। लोकतंत्र के इस स्तंभ से इसकी उम्मीद की जाती है कि वह सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ होगा। अगर उसके कार्य और फैसले तार्किक नहीं होंगे तो अविश्वास की स्थिति पैदा होगी। इसकी व्यापक गुंजाइश रखी जानी चाहिए कि किसी भी विषय पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में विचार हो और न्यायपालिका की सर्वोच्चता को कायम रखने का प्रयास भी लगातार किया जाए। 

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