चुनावी मौसम में मिट्टी के मटकों का शीतल जल बना नेताओं के सफर का साथी
- By Vinod --
- Saturday, 04 May, 2024
During the election season, cool water from earthen pots became the traveling companion of the leade
During the election season, cool water from earthen pots became the traveling companion of the leaders- चंडीगढ़। मिटटी से बने बर्तनों का युग पुन: फिर तेजी से लोटने लगा है। हर मौसम में विशेषकर गर्मी के मौसम में मिटटी से बने बर्तन अपनी उपस्थिती का अहसास करा रहे है। मिटटी से बने मटके किसी फ्रिज से कम नही। वैसे भी देहात में तो मटकों को गरीब के घर का फ्रिज भी कहते है। गर्मी के सीजन में चोक चौराहों, सडक़ों के किनारे रखे मिल जाएगे। लोग विशेष कर महिलाएं शहरों में मटके खरीदती नजर आ जाएंगी। गर्मी के सीजन में शायद ही कोई घर ऐसा हो जहां मिटटी के घड़े, मटके,सुराही या झज्जरी ना हो। इसमें कोई दो राय नही कि भौतिकावादी चकाचौंद भरे जमाने में मिटटी के बर्तन खुले बाजार में अपना सीना ताने खड़े है। गर्मी के सीजन में तो मानों ये कह रहे हो कि है कोई माई का लाल जो शीतलता के क्षेत्र में हमारा मुकाबला कर सके। वैसे इंसान को शीतलता और विनम्रता का पाठ पढ़ाने वाले मिटटी के बर्तन प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में थोडा पीछे चल रहे है लेकिन किसी से कमजोर नही है।
फ्रिज का पानी मत पीना, घड़े का पानी पी सकते हो
आज के भौतिकवादी जमाने में आए दिन नए-नए आविष्कार हो रहे है। मनुष्य अपनी जरूरत के हिसाब से नई-नई तकनीक विकसित कर रहा हैं। रहन-सहन, खान-पान, आने-जाने, जीवन शैली तथा पहनावे में नित नए बदलाव देखने को मिलते है। लेकिन कुछ चीजें ऐसी है जो हमारे समाज में आज भी उतना ही महत्व रखती है जितना पहले रखती थी। नवीनतम प्रणाली के विकसित होने से बाजार में नए उत्पाद आ रहे है,लेकिन मटके आज भी पहले की तरह जिंदाबाद है। आज तो डाक्टर भी बीमार आदमी को यह कहते नजर आते है कि फ्रिज का पानी मत पीना, घड़े का पानी पी सकते हो।
झोपड़ी से लेकर कोठियों तक में मिल जाते है मिटटी के मटके
अमीर आदमी तो अपनी नई चीजें खरीद लेते है लेकिन जो गरीब मिंिडल परिवार है वे परम्परागत चीजों का ही प्रयोग करते हैं। गर्मी के मौसम से निपटने के लिए व्यक्ति अपने बजट के हिसाब से जरूरत की चीजें खरीदते है। इस लेख में ऐसी चीजों जिक्र किया जा रहा है जो आज भी मानव के लिए बेहद जरूरत ही वस्तु है। गर्मी के मौसम में ठंडे पानी के लिए बिजली से चलने वाली अनेक चीजें आ गई है,उनके आने से मिट्टी से बने बर्तन, घड़े मटके झज्जरी वा सुराही इत्यादि के पांव उखड़ते और जमते रहते है। एक समय था जब मिट्टी से बने बर्तन अपने अस्तित्व की शायद अन्तिम लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन वर्तमान में ऐसा कतई नही लगता। अब तो मिटटी के बर्तन चौधरी बन कर अन्य संबंंधित उत्पाद को पछाडऩे की ताकत रखते है। संस्कृति में विशवास रखने वाले जिन लोगों ने घड़े के शीतल जल का स्वाद चखा है, वे चाहे शहर में या फिर गांव में रहते हो। इसे अवश्य खरीदते है।ं उनका मानना है कि वर्तमान में बेशक इनका प्रचलन कम हो गया है। लेकिन लोगों की प्यास तो मिट्टी के बने मटकों के पानी से बुझती है। बड़ी से बड़ी कोठी हो या झोपडी मटके, घड़े, झज्जरी या सुराही अवश्य मिल जाएगे। गर्मी के मौसम यदि घड़े का पानी मिल जाए तो क्या कहने।
झज्जर में बनने वाली झज्जरी और सुराही का अंतराष्टï्र्रीय बाजार में भी बोलबाला
वैसे तो समुचे भारत वर्ष मे मिट्टी के बर्तन घड़े इत्यादि बनाए जाते है लेकिन हरियाणा प्रदेश का जिक्र करें तो झज्जर कस्बा इस प्रकार के बर्तन बनाने में सबसे अग्रणीय माना जाता है। झज्जर का बर्तन उद्योग ना केवल भारत में बल्कि विश्व के कंई देशों में अपना अहम् स्थान रखता हैं। कई देशों के व्यापारी यहां के लोगों को माल के लिए आर्डर देते है। इस कस्बे में बने मिट्टी के बर्तन बहुत प्रसिद्ध है। यहां बनने वाली सुराही वा झज्जरी का कोई जवाब नही। बहुत कम लोग जानते है कि झज्जरी का नाम झज्जरी क्यों पडा। झज्जरी का नाम झज्जर इसलिए पड़ा क्योंकि बताया जाता हैं कि इसका निर्माण कार्य झज्जर से शुरू हुआ। किसी जमाने में मिट्टी के बर्तन बनाने का पुश्तैनी धंधा कुम्हार भाईयों का हुआ करता था लेकिन आजकल अन्य बिरादरियों के लोग भी इस कार्य में लग गए हैं। वैसे महंगी मिट्टी तथा जलाशयों में पानी की कमी के कारण बर्तन बनाने का कार्य प्रभावित तो हुआ ही है।
यमुनानगर जिले के सुघ,कुरूक्षेत्र के अमीन, कैथल के मुंदडी तथा हिसार के राखी गढी में छिपा है मिटटी के बर्तनों का इतिहास
मिट्टी के बर्तनों का प्रचलन समाज में आदिकाल से जुडा है। पुरातत्व विभाग द्वारा यमुनानगर जिले के सुघ,कुरूक्षेत्र के अमीन,कैथल के मुंदडी तथा हिसार के राखी गढी इत्यादि गांवों सहित कंई स्थानों पर की गई खुदाई से कंई प्रकार के टेढे मेढे मटकों के अवशेष मिले है। जिनसे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि तत्कालीन जमाने में भी पानी को एकत्रित करने के लिए मटकों का प्रयोग किया जाता था। आज भी मिट्टी से ही बनाए जाते है लेकिन यदि बदला है तो केवल इनका स्वरूप।
उस जमाने में केवल घड़े ही बनाए जाते रहे होगें। लेकिन आज तो मिटटी से मटके, सुराही, घड़े, झज्जरी, घड़वे, हांडी, कडोणी, चिलम, कसोरे, कुण्डी तथा दीपावली के अवसर पर दीपमाला के रूप मे ंप्रयोग किए जाने वाले चुगडे,लोट इत्यादि बनाए जाते हैं। कोल्हु में अपनी जोट निकालने के बाद बैलों को मिटटी से बनी कुंडी में ही रस पिलाया जाता था। जिस दिन रस पीने को नही मिलता था तो बैल आज के नेताओं की तरह नाराज या रूष्टï नही होते थे बल्कि संतोषकर अपने मालिक के साथ चल पड़ते थे।
विवाह के समय बनड़े-बनड़ी को मटणा लगाने के लिए किया जाता है मिट्टी से बनी कुण्डी का उपयोग- बैठक, नोहरे, चौपालों, खेत खलिहानों में आज भी जारी है मटकों की मटक: देहात में मिट्टी के बर्तनों का आज भी सदुपयोग हो रहा है। बैठकों, नोहरों, खेत खलिहानों इत्यादि में इनका प्रयोग किया जाता है। छोटे बड़े शहरों, कस्बों, दुकानों तथा होटलों में भी मिट्टी के बर्तनों प्रयोग फैशन के रूप में किया जाने लगा हैं। दही, लस्सी इत्यादि कसौरों में परोसी जाने लगी है। मिट्टी के बर्तनों, घड़ों का समाज से गहरा रिश्ता है। मिटटी के बर्तनों को बनाने वाले कुम्हार समाज के लोग कड़ी मेहनत से बर्तन बनाते है। सारा गांव सामाजिक सरोकार के शुभ, मंगल कार्यों, दुुख-सुख, खुशी, गम में बर्तन खरीदता हैं। मिट्टी के बर्तनों का हमारे समाज के साथ गहरा रिशता है। जन्म से मृत्यू तक सभी 16 संस्कारों में मिट्टी के बर्तनों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप मे जरूरत अवश्य पडती हैं। विवाह के समय बनड़े-बनड़ी को मटणा लगाने के लिए मिटटी से बनी कुण्डी का उपयोग किया जाता है, उसे शुभ माना जाता है तथा सम्भाल कर रखा जाता है। अन्तिम संस्कार के समय भी चिता के चारों तरफ घूम कर अराध्य देव की अराधना करते हुए तथा पितरों का स्मरण करते हुए मटका फोडा जाता है ताकि मृतक की आत्मा को शान्ति मिले।
कुछ समय पहले मिट्टी के बर्तनों की खपत अधिक थी। प्रजापति भाइयों का सारा परिवार सीजन के समय पौ फटते ही मिट्टी के बर्तन बनाने में जुट जाता था। वर्तमान में हालात बदल गए है। गमलों के बाजार में प्रतिस्पर्धा छिड़ गई है क्योंकि सिमेंट के गमले बनाने वाला उद्योग भी जोर पकडने लगा है। बाजार में प्लास्टिक का सामान आ जाने की वजह से मिटटी के बर्तनो की मांग थाोडा कम हो गई है। पहले महिलाएं पानी जमा करने के लिए कंई-कंई घड़े भर कर रख लेती थी। लेकिन आज प्लास्टिक की बाल्टियों वा टबों का अधिक इस्तेमाल होने लगा है।
नाम नहीं लिखने की शर्त पर एक भाई ने बताया कि उनका परिवार पिछले 55 वर्ष से इस व्यवसाय से जुडा है। बदलते वक्त के साथ प्लास्टिक तथा अन्य उत्पाद बाजार में आने से प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। अब मिट्टी के बर्तन बनाने वाले लोग भी मुकाबले में डटे रहना चाहते है। उन्होंने अब मिट्टी के अन्य बर्तनों के साथ-साथ गमले, कैम्पर, झज्जरी, सुराही, इत्यादि बनाने शुरू कर दिए हैै। इस धन्धे में खर्चा निकालकर 50 प्रतिशत तक लाभ मिल जाता हैं। धन्धे को लग्न से किया जाए तो यह घाटे का सौदा नहीं है। उन्होंने नए तरीके से कैम्पर बनाए है। इनके मुकाबले प्लास्टिक के कैम्पर कंही भी नही टिक पाते। प्लास्टिक के कैम्परों में पानी ठंडा रखने के लिए बर्फ डालनी पड़ती है लेकिन मिट्टी केे कैम्परों में पानी प्राकृतिक रूप सेे ठंडा होता है। मिट्टी का 20 लीटर वाला कैम्पर 150 से 250 रुपये में मिल जाता है जबकि प्लास्टिक वाला क्वालिटी और क्षमता के अनुसार 250 से पांच सौ रुपये में मिलता है।
पाकिस्तान के मुल्तान से आए होतु राम द्घारा शुरू किए गए कारोबार से किनारा कर रही है अगली पीढ़ी: सन 1947 में दादा जी ने पाकिस्तान से आकर बर्तन बेचने का काम शुरू किया था। फिर पिता जी भी इसी काम से जुड़े रहे और अब मैं भी इसी कारोबार से जुड़ा हूं। यह कहना है आजादी के बाद पाकिस्तान से आए उस परिवार के सदस्य रोहित ग्रोवर का। कमलेश कालडा गुजरात और भठिडा से बर्तन मंगवाकर बेचती है। अम्बाला के सुरेश प्रजापति करते है कि अम्बाला कैंट में सौ से अधिक परिवार इस कार्य से जुड़े हुए थे। अब मात्र 20 परिवार ही इस धंधे से जुड़े है बाकि ने अपने रास्ते बदल लिए है। पाकिस्तान के मुल्तान से आए प्रभु दयाल पाहुजा ने कहा कि वहां से आने के बाद उनके पिता होतु राम ने भी यह काम किया। उनके बाद ने परिवार ने भी कुछ समय यह कारोबार आगे बढ़ाया लेकिन अब बच्चे इस काम से दुरी बनाए हुए है। सादा घड़ा 60 से 100 रुपये का जबकि टुंटी वाला 300 से पांच सौ रुपये क्षमता और गुणवता के आधार पर बिक जाता है। गमलों की डिमांड हर समय रहती है। त्यौंहारों पर मांग बढ़ जाती है।
कलायत निवासी महेंद्र प्रजापत ने बताया कि पुराने समय में मिट्टी के घड़ो का प्रचलन बहुत ज्यादा था लेकिन धीरे-धीरे मिट्टी के घड़े बनाने का कार्य खत्म होने की कगार पर आ गया है। अब मिट्टी के घड़ो की जगह फ्रिज, वाटर कूलर व फिल्टर वाले कंपरो का उपयोग होने लगा है।
आज भी जिंदा है चाक पूजन की आध्यात्मिक परंपरा
कुम्हार के जिस चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाए जाते है वह बहुत ही शुभ माना जाता है। एक किवदंती के अनुसार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने भगवान शिव की शादी में कलश पूजन के लिए विश्वकर्मा को कलश बनाने के लिए कहा। शिव विवाह में आई बाधा को दूर करने के लिए कलश का पूजन जरूरी था। इस लिए ब्रह्मा जी के इशारे पर विश्वकर्मा ने कलश का निर्माण किया तब कहीं जाकर शिव का विवाह सम्पन्न हो पाया। उसी समय से चली आ रही कलश यानि चाक पूजन की परम्परा आज भी कायम है। शादी में किसी प्रकार का विघ्न न आए इसलिए विवाह से पूर्व औरतें पुरे गाजे-बाजे के साथ गीत गाती हुई चाक पूजने जाती है। इतना ही नहीं जब सुहागन करवा चौथ का व्रत रखती है तो मिट्टी के करवे की चावल, फल-फूल, कचरिया इत्यादि डालकर पूजा करती हैं। होई माता के व्रत के समय भी मिट्टी के करवे को साक्षी मानकर व्रत रखा जाता है। देहात में मटकों को सर पर रखकर पनिहारिने जब पानी भरने के लिए कुंए पर जाती है तो बहुत ही अदभुत नजारा देखते ही बनता है। कुछ महिलाएं तो दोगड़ से अधिक घड़े भी रख लेती था। इस प्रकार का नजारा देहात में आज भी देखने को मिल जाता है।
मिट्टी से बने बर्तन आज भी बाजार में खड़े है सीना ताने
ठंडा पानी पीने के लिए आज कल विभिन्न प्रकार के मंहगे फ्रिज बाजार में है, लेकिन फिर भी फ्रिज का पानी घड़े के पानी का मुकाबला नही कर सकता। बिजली की कमी के चलते कंई बार तो फ्रिज का पानी ठंडा ही नही हो पाता। आयुर्वेद के जानकार मटके का पानी फ्रिज के पानी की तुलना मे बहुत अच्छा मानते है। फ्रिज का पानी तो बहुत कम लोगों को मिल पाता है लेकिन घड़े का पानी हर घर में उपलब्ध है। गर्मी के मौसम में शहरों में भी घड़े का पानी प्रयोग में लाया जाने लगा है। समाज में मटका आज भी जरूरत चीज माना जाता है।। मिट्टी के बर्तनों का प्रचलन आए दिन बढ़ रहा है। पुराने जमाने में साधारण तरीके से बनाए जाते थे लेकिन आजकल मिटटी के बर्तन भी बड़े फैशन के साथ बनाए जाते है। चित्रकारी से बने ये बर्तन आकर्षक लगते है। इन्हे देखते ही लोग लगते है कि इनका दाम कितना है तथा कहां से खरीदी है। मिटटी से बने बर्तन आज भी बाजार में सीना ताने खड़े है।
बर्तन बाजार पर कब्जा करके बैठे है कुछ बड़े कारोबारी
पेशे से जुड़े कारोबारियों का कहना है कि महगंाई के जमाने में सबकुछ मंहगा हो गया है। पहले मिटटी, पानी, बालण मुफ्त सा सस्ते में मिल जाते थे। आजकल ये सब पैसे में मिलता हैं। बर्तन बनाने में सारा परिवार लगा रहता है। फिर भी बच्चों का पेट पालना दूभर हो गया है। इस कारोबार में बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाना तो बहुत दूर की बात है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा के चलते यह धंधा महंगा हो गया है। बाजार में पांव जमाने के लिए अच्छी मिट्टी से बर्तन बनाने के बाद रंग व चित्रकारी की जाती है और फिर भ_े में धीमी आंच में लगाया जाता है। इसमें यह भी डर रहता है कि कहीं अधिक आंच लगने के कारण बर्तन तिडक ना जांए। यदि बर्तन कच्चे रह जाते है तो ग्राहक नहीं खरीदते और यदि लेते भी है तो ओने-पौने दामों पर। विज्ञान ने बहुत तरक्की की है। बिजली से संचालित चाक भी बिजली की आपूर्ति तथा तकनीकी सम्पूर्णता के अभाव में आशानुरूप सफल नहीं हो पाए। सामाजिक सरोकार के इस व्यवसाय को सरकार भी पूरी तरह संरक्षण नही दे पाई। कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के बरौली कस्बे से आए करनाल आए दसवीं पास 57 वर्षीय रामशरण प्रजापत ने बताया था कि उसका परिवार आजादी प्राप्ति पहले से ही मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करता है। उसके पिता जी का अपने पुश्तैनी कार्य में काफी नाम था। उस समय मुझे कारखाने में नौकरी भी मिल गई थी लेकिन हमारा कारोबार इतना अच्छा था कि मैंने नौकरी छोड़ दी लेकिन आज मुझे बड़ा पछतावा हो रहा है। उस जमाने में केवल घड़े, घड़वी, कढोणी चिलम इत्यादि बनाई जाती थी। आज जमाना बदल गया है, लोग वरायटी मांगते है इसलिए हमने भी मटको सुराईयों पर आर्कषक चित्रकारी शुरू कर दी है। इनके हमें दाम सही नही मिल रहे है।। पहले की तुलना में सब चीजें महंगी हो गई है। कुल मिलाकर मिट्टी बर्तन उद्योग आर्थिक सहायता के अभाव में दम तोड रहा है। गर्मी के समय में अप्रैल से जुलाई के बीच बर्तन अधिक बिकते है। समाजसेवी लोग इन दिनों प्याऊ बिठाते है ताकि राहगीर भी शीतल जल का आनन्द ले सकें।
भारतीय संस्कृति में प्यास बुझाने की प्रक्रिया को कहते है प्रपा दान
हमारी संस्कृति में प्याऊ का इतिहास,पौराणिक तथा अध्यात्मिक महत्व के मायने भी रखता है। ‘यावद् विन्दूनि लिंगस्य पतितानी न संशय। स वसेच्छाडं.क्गरे लोके तावत् कोट्यों नरेश्रवर’’ अर्थात अध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो श्रद्धालु प्रतिदिन शिवलिंग पर जल चढाते है। भविष्योतपुराण के अनुसार जितनी बूंदे शिवलिंग पर गिरती है,उतना ही व्यक्ति को अच्छा स्वास्थ्य मिलता है। शास्त्रों में इसे गलन्तिका दान के रूप में जाना जाता है। भविष्यतोंपुराण के अनुसार गर्मी की मौसम में गलन्तिका दान से देवता प्रसन्न होते हैं तथा व्यक्ति को अपना आर्शीवाद देते हैं। बसन्त ऋतु में प्याऊ का महत्व अलग माना गया है। ग्रीष्में चैव बसन्ते च पानीयं य: प्रयच्छति। भविष्योतर पुराण के इस प्रवचन के अनुसार ग्रीष्म तथा बसन्त के मौसम मे पानी पिलाने से उसके पुण्य का हजारों जिवा भी वर्णन नही कर सकती। गर्मी बढऩे के साथ-साथ सभी को चाहे वह व्यक्ति, पशु, पक्षी या अन्य जीव हो, पानी की जरूरत पड़ती है। अध्यात्मिक शास्त्रों का इसके बारे में क्या कहना है। इस बारे गौर करना जरूरी हैं। भारतीय संस्कृति में प्याऊ द्वारा प्यास बुझाने की प्रक्रिया को प्रपा दान कहते हैं। अमरकोश में प्रपा का अर्थ पानीय शालिका है। इसका अर्थ पानी के घर से है। जहां पर पानी का प्रबंध अधिक हो उसे प्रपा कहा जाता है। यही कारण है के सामाजिक पुण्य कमाने वाले लोग मटके को पानी से प्रतिदिन भरवाते हैं और प्याऊ के जरीये पुण्य कमाने का अवसर गवाना नही चाहते। इस तरह से कहा जा सकता है कि प्याऊ भी गरीब की रोजी रोटी में सहायक है क्योंकि एक प्याऊ पर कम से कम आठ से 15 तक घड़े रखे होते है। इस प्रकार गर्मी के सीजन में मटकों की खरीद प्याऊ के कारण भी बढ जाती है। कहना ना होगा के मिट्टी बर्तन उद्योग नित नए उत्पाद बाजार में आने से प्रभावित तो अवश्य हुआ है लेकिन अपने महत्व एवं अस्तित्व को आज भी आन बान और शान से जिन्दा रखे हुए है।
उंगली का ठोले से पता लग जाता है घड़े की क्षमता और दक्षता का
आज से दो तीन दशक पहले मात्र पंाच या दस रुपये में आने वाला मटका,सुराही या झज्जरी वर्तमान में 70-80 से 250 रूपये तक मिल जाती है। देहात की बुजुर्ग महिलाएं मिट्टी के बर्तन खरीदने में बहुत ही पारखी होती है। उनकी पैनी नजर एक बार में ही पता लगा लेती है कि कौेनसा बर्तन कितना पक्का है। उंगली का ठोला मार कर घडे ़ की क्षमता दक्षता का आसानी से पता लगा लेती है। एक घड़ा या सुराही संभाल कर रखी जाए तो कंई साल तक चल जाती है, लेकिन कोरे घडे का पानी पीने में शीतल तथा स्वादिष्ट होता है। इस प्रकार के बर्तन देहात में तो कुम्हार भाई स्वयं दे जाते है या उनके घरों से लाने पडते है लेकिन शहरों तथा कस्बों में वे ठेलों तथा हाथ रेडियों पर बेचते है। दो तीन दशक पहले गर्मी का सीजन आते ही घड़े खरीदने की होड़ लग जाती थी। प्लास्टिक के उत्पाद बाजार में आने से मिट्टी के बर्तन कम बिकने लगे थे लेकिन फिर से मिट्टी के बर्तनों में उछाल आने लगा है।