पीजीआई के डॉक्टरों का खुलासा : शौच के साथ आ रहा खून तो रहें सतर्क, हो सकती है आईबीडी
Blood coming with defecation, be alert, may be IBD
पीजीआई में हर माह पहुंच रहे आईबीडी के दर्जनों नये मामले
कोलोनोस्कोपी न होने की वजह से जिला अस्पतालों में नहीं लग पाता बीमारी का पता
अर्थ प्रकाश/साजन शर्मा
चंडीगढ़। किसी व्यक्ति को अगर शौच या दस्त के साथ दो हफ्ते तक लगातार खून आ रहा है तो इसे हल्के में न लें। यह इनफ्लामेटरी बाउल डिजिज (IBD) हो सकती है। यह कहना है पीजीआई (PGI) के गेस्ट्रोइंटेरोलॉजी के डॉक्टरों का। विभाग की हैड प्रो. ऊषा दत्ता ने वीरवार को एक पत्रकार वार्ता के दौरान बताया कि बीमारी से ग्रसित व्यक्ति के पेट में दर्द हो सकता है। उसे दस्त लग सकते हैं या शौच के साथ खून आने लगता है। आमतौर पर ऐसी स्थिति में लोग इसे बवासीर समझने लगते हैं लेकिन यह बवासीर होती नहीं। इसे भ्रम व जागरुकता न होने के चलते टीबी या कैंसर भी मान लिया जाता है। चूंकि लोगों को बीमारी के बारे जागरुकता नहीं होती लिहाजा इसे पहचानने में काफी वक्त लग जाता है। तब तक बीमारी काफी नुकसान पहुंचा चुकी होती है। डॉ. विशाल शर्मा ने बताया कि जिला अस्पतालों में कोलोनोस्कोपी की सुविधा न होने के चलते बीमारी का भी पता नहीं लग पाता। दोनों डॉक्टरों ने बताया कि आईबीडी को लेकर मरीजों में वीरवार से विभाग में जागरुकता अभियान चला रहे हैं। करीब 250 लोगों को बीमारी के बारे बताया जाएगा। विभाग की ओर से आईबीडी को लेकर कोलाइट्स एंड क्रोहंस फाऊंडेशन के साथ मिलकर एक कार्ड डिजाइन किया गया है जिसमें बीमारी के बारे, इसके निदान में दवाओं के बारे तो जानकारी देगा ही, वहीं ये भी बतायेगा कि बीमारी से बचने के लिए कैसी डाइट लेनी चाहिए और किन किन चीजों का ख्याल रखना चाहिए। दिल्ली एम्स, लुधियाना के डीएमसी व लखनऊ के एसजीपीजीआई के डॉक्टरों के सहयोग से इसे तैयार किया गया है। वल्र्ड आईबीडी डे पर इस कार्ड को रिलीज किया जाएगा।
खानपीन की गलत आदतें, पश्चिमी लाइफस्टाइल अपनाने से पेश आ रही लोगों में दिक्कत
खानपान की आदतों में बदलाव व पश्चिमी तौर तरीके अपनाने की वजह से युवाओं में इनफ्लामेटरी बाउल डिजिज के मामले सामने आ रहे हैं। पीजीआई (PGI) में हर माह इसके 30 से 40 नए मामले पहुंचते हैं। तनाव, जेनेटिक्स, इम्यून रिस्पॉंस भी इस बीमारी होने के एक प्रमुख कारकों में से एक है। मैदे से बने पदार्थ, तला हुआ भोजन, अफीम सेवन व दर्द निवारक दवाएं भी इस बीमारी के होने का कारक हो सकती हैं। प्रो. ऊषा दत्ता ने बताया कि जो लोग अक्सर बाहर रहते हैं और बाहर का ही खाना खाते हैं, उनमें बीमारी होने के ज्यादा चांस रहते हैं। रिफाइंड तेल का इस्तेमाल भी बीमारी होने की एक वजह है क्योंकि इसमें से अच्छे पदार्थ निकल जाते हैं। हल्दी में करक्यूमिन नाम का तत्व रहता है जो शरीर को काफी फायदा देता है लेकिन अब हल्दी में भी मिलावट के चलते पहले वाली शक्ति नहीं है। लोग ट्यूबलाइट में ज्यादा रहते हैं, धूप शरीर को नहीं लगती जिससे दिक्कतें पैदा हो रही हैं। फॉस्ट फूड या बाहर का खाने का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। रेफ्रीजरेटर में सब्जी या आटा इत्यादि रखते हैं और इसे निकाल कर माइक्रोवेव में गर्म करते हैं, इससे खाने में बैक्टीरिया बढ़ते रहते हैं जो फायदा देने की बजाये नुकसान देते हैं। मल्टीपल बैक्टीरिया पेट में पहुंचने की वजह से डॉक्टरों को भी ट्रीटमेंट में दिक्कत पेश आती है। पहले पहचानना पड़ता है कि बीमारी आम पेट का संक्रमण है या आईबीडी। उसके अनुरूप ही इलाज आगे बढ़ाया जाता है। उन्होंने बताया कि बीमारी पता लग जाए तो देसी दवाओं पर मरीज न जाएं बल्कि इसका अच्छे अस्पताल व अच्छे डॉक्टर से इलाज करायें। घर में बनी ताजा दही खाने या घर का सादा खाना खाने से बीमारी पर रोक लग सकती है। इस बीमारी में छोटी आंत व बड़ी आंत दोनों प्रभावित होती हैं। लगातार फॉस्ट फूड या मैदे इत्यादि से बने पदार्थ या दर्द निवारक दवाएं पेट की स्मूद लेयर में जख्म बनाने लगती हैं क्योंकि इनका सही तरीके से पाचन नहीं हो पाता।
उत्तर भारत में काफी मामले
उत्तर भारत में आईबीडी (IBD) के ज्यादा मामले होने की ओर भी कई रिसर्च खुलासा कर रहे हैं। लांसेट में छपे एक शोध के मुताबिक दक्षिण एशिया जिसमें भारत भी शामिल है, में आईबीडी के पश्चिमी देशों की तरह काफी मामले सामने आ रहे हैं। आईबीडी दो प्रकार की हो सकती है। एक क्रोहंस डिजिज जबकि दूसरी अल्सरेटिव कोलाइट्स। यह बीमारी यूं तो यह बीमारी किसी भी आयु वर्ग को हो सकती है लेकिन 20 से 40 साल के युवाओं में काफी ज्यादा मामले देखने में आ रहे हैं।