अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति को लेकर केन्द्र और राज्यों के बीच टकराव

अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति को लेकर केन्द्र और राज्यों के बीच टकराव

अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति को लेकर केन्द्र और राज्यों के बीच टकराव

अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति को लेकर केन्द्र और राज्यों के बीच टकराव

प्रकाश सिंह

अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे राज्यों में सीमा सुरक्षा बल के अधिकार क्षेत्र में विस्तार के मुद्दे पर केन्द्र और राज्यों के बीच विवाद से उपजे गुबार का थमना अभी बाकी है। इस बीच, आईएएस (कैडर) नियम, 1954 में संशोधन को लेकर एक और विवाद हमारे सामने है।

संविधान के अनुच्छेद 312 में अखिल भारतीय सेवाओं की एक प्रणाली का प्रावधान करने के पीछे संविधान निर्माताओं का व्यापक उद्देश्य केन्द्र एवं राज्यों के बीच संपर्क को सुविधाजनक बनाना और प्रशासन के मानक में एकरूपता सुनिश्चित करना था। संविधान को प्रख्यापित करने के समय भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा को इस अनुच्छेद के तहत संसद द्वारा निर्मित सेवाओं के रूप में माना गया। इन सेवाओं के लिए अधिकारियों की भर्ती भारत सरकार द्वारा संघ लोक सेवा आयोग के माध्यम से की जाती है। चयन के बाद, अधिकारियों को रिक्तियों के आधार पर राज्यों और केन्द्र-शासित प्रदेशों के संवर्ग (कैडर) आवंटित किए जाते हैं। हर राज्य में केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति का एक रिजर्व होता है, जोकि उस राज्य में उच्च कर्तव्यों वाले पदों का 40 प्रतिशत होता है। केन्द्रीय पुलिस संगठनों सहित भारत सरकार के विभिन्न अंगों को चलाने के लिए केन्द्र सरकार को इस रिजर्व में से अधिकारी उपलब्ध कराए जाते हैं।

मौजूदा परिपाटी यह है कि केन्द्र हर साल राज्यों से अखिल भारतीय सेवाओं के उन अधिकारियों की “प्रस्ताव सूची” मांगता है जो केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने के इच्छुक होते हैं। इस सूची में से केन्द्र अपनी आवश्यकताओं के हिसाब से उपयुक्त समझे जाने वाले अधिकारियों का चयन करता है। दुर्भाग्य से, इस “प्रस्ताव सूची” में शामिल होने वाले अधिकारियों की संख्या घट रही है। कई ऐसे उदाहरण भी हैं जहां एक अधिकारी ने खुद को केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने के लिए प्रस्तुत किया, लेकिन किसी कारणवश राज्य सरकार द्वारा उसे कार्यमुक्त नहीं किया गया। इसका परिणाम यह हुआ है कि केन्द्र को पिछले कुछ समय से केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति रिजर्व का पूरा कोटा नहीं मिल पा रहा है जिसकी वजह से विभिन्न विभागों में बड़ी संख्या में रिक्तियां पैदा हो रही हैं।

उदाहरण के तौर पर,  केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने वाले संयुक्त सचिव स्तर के आईएएस अधिकारियों की संख्या 2011 में 309 थी जोकि 2021 में से घटकर 223 रह गई है। यह पिछले दशक के दौरान अधिकारियों के उपयोग दर के 25 प्रतिशत से घटकर 18 प्रतिशत तक पहुंच जाने को दर्शाता है। देश में उप-सचिव और निदेशक स्तर के अधिकारियों की संख्या 2014 में 621 से बढ़कर वर्तमान में 1,130 हो गई है। फिर भी, प्रतिनियुक्ति पर जाने वाले अधिकारियों की संख्या 117 से घटकर 114 रह गई है। आईपीएस अधिकारियों के संदर्भ में भी स्थिति बदतर तो नहीं, लेकिन उतनी ही खराब है। देश में आईपीएस अधिकारियों के कुल 4,984 स्वीकृत पद हैं। इनमें से 4074 पदों पर अधिकारी तैनात हैं। उच्च कर्तव्यों वाले कुल पद (एसपी से डीजी तक) 2720 हैं, जिनमें से 1075 पद केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए रिजर्व हैं। इसके बरक्स, सिर्फ 442 अधिकारी ही केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर हैं। परिणामस्वरूप, 633 अधिकारियों की रिक्ति पैदा हुई है जिन्हें राज्य सरकारों द्वारा केन्द्र को उपलब्ध नहीं कराया गया है। इस मामले में सबसे से बड़ा दोषी पश्चिम बंगाल साबित हुआ है, जहां सीडीआर के 16 प्रतिशत का इस्तेमाल हुआ है। हरियाणा में सीडीआर के 16.13 प्रतिशत, तेलंगाना में 20 प्रतिशत और कर्नाटक में 21.74 प्रतिशत का इस्तेमाल हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ है कि केन्द्रीय पुलिस संगठनों को अधिकारियों की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है। बीएसएफ में, डीआईजी के 26 पदों के मुकाबले 24 रिक्तियां हैं। सीआरपीएफ में, डीआईजी के 38 पदों के मुकाबले 36 रिक्तियां हैं। सीबीआई में पुलिस अधीक्षकों के 63 पदों के मुकाबले 40 रिक्तियां हैं। इसी प्रकार आईबी में, डीआईजी के 63 पदों के मुकाबले, 45 रिक्तियां हैं।

कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने 20 दिसंबर, 2021 को राज्य सरकारों को पत्र लिखकर अपनी कठिनाइयों को व्यक्त किया और प्रस्तावित संशोधन पर उनके विचार मांगे जोकि इस प्रकार है: “प्रत्येक राज्य सरकार नियम 4 (I) में निर्दिष्ट नियमों के तहत निर्धारित केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति रिजर्व की सीमा तक विभिन्न स्तरों के पात्र अधिकारियों की संख्या संबंधित राज्य सरकार के पास एक निश्चित समय में राज्य संवर्ग (कैडर) की कुल अधिकृत संख्या की तुलना में उपलब्ध अधिकारियों की संख्या के साथ आनुपातिक रूप से समायोजित करते हुए केन्द्र सरकार को प्रतिनियुक्ति के लिए उपलब्ध कराएगी। केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्त किए जाने वाले अधिकारियों की वास्तविक संख्या केन्द्र सरकार द्वारा संबंधित राज्य सरकार के परामर्श से तय की जाएगी।”

ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भारत सरकार के किसी भी कदम का विरोध करने का फैसला किया है, भले ही वह कदम राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने या केन्द्र में सरकारी तंत्र को चलाने से जुड़ा ही क्यों न हो। उन्होंने आरोप लगाया है कि यह संशोधन “सहकारी संघवाद की भावना के खिलाफ” है और “आईएएस/आईपीएस अधिकारियों की तैनाती के मामले में केन्द्र और राज्यों के बीच मौजूद लंबे समय से चली आ रही सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था में व्यवधान पैदा करता है”।

हालांकि यह संशोधन भारत सरकार और उसके विभिन्न संगठनों, जिन्हें आईएएस कैडर के अधिकारियों द्वारा चलाया जा रहा है, के सुचारु संचालन के लिए आवश्यक है। दरअसल, आईपीएस कैडर के नियमों में भी इसी तरह का संशोधन किया जाना चाहिए। बड़ी संख्या में अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी कभी भी केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर नहीं जाते हैं जिसकी वजह से उनके भीतर कुएं के मेंढक वाली एक मानसिकता विकसित हो जाती है। केन्द्र स्तर का एक कार्यकाल अधिकारियों के क्षितिज को व्यापक बनाता है और अन्य कैडरों के अधिकारियों के साथ उनकी प्रतिस्पर्धा उनके भीतर के सर्वश्रेष्ठ को बाहर लाती है।

कार्मिक विभाग ने 12 जनवरी, 2022 को एक और पत्र जारी कर संशोधन के दायरे को “विशिष्ट परिस्थितियों में जब केन्द्र सरकार को जनहित में कैडर अधिकारियों की सेवाओं की आवश्यकता हो” तक विस्तृत कर दिया। इस पत्र ने आईएएस अधिकारियों के जेहन में एक वास्तविक चिंता पैदा कर दी है। आईएएस अधिकारियों को यह महसूस हो रहा है कि यह उन अधिकारियों का उत्पीड़न करने की एक चाल हो सकती है, जिनसे केन्द्र सरकार कुछ कारणवश रुष्ट हुई है। भारत सरकार के लिए इस उपधारा को वापस लेना अच्छा रहेगा।

इस संदर्भ में, कैडर प्रबंधन के बारे में सरकारिया आयोग के विचार बेहद प्रासंगिक हैं। “यदि किसी उपयोगकर्ता विशेष को पूल का प्रबंधन करने वाले प्राधिकरण के निर्णयों को वीटो करने की शक्ति मिलती है, तो संसाधनों का एक पूल कई उपयोगकर्ताओं के लिए एक ‘साझा’ पूल नहीं रह जाता है। इसलिए, हम व्यावहारिक रूप में किसी भी ऐसी व्यवस्था की परिकल्पना करने में असमर्थ हैं जिसमें वह अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों से संबंधित मामलों में राज्य सरकारों को अत्यधिक अधिकार देता हो और इसके बावजूद केन्द्र सरकार से उन अधिकारियों के प्रशिक्षण, करियर प्रबंधन और अखिल भारतीय सेवाओं से संबंधित कार्मिक प्रशासन के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं के लिए जिम्मेदार होने की अपेक्षा करता हो। इसलिए, इन मामलों में अंतिम निर्णय केन्द्र सरकार का होना चाहिए।”

अखिल भारतीय सेवाओं के विभिन्न विषयों और स्तरों पर सुधारों की तत्काल जरूरत है। केन्द्र में प्रतिनियुक्ति एक ऐसा उपाय है, जिसे सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। राज्यों की ओर से सहयोग में कमी को केन्द्र सरकार के आड़े आने नहीं दिया जा सकता। राज्यों को अपनी जमींदारी के तौर पर देखने की मानसिकता से अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को बाहर निकल आना चाहिए।

(लेखक इंडियन पुलिस फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं)