जैसी करनी, वैसी भरनी: आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज

जैसी करनी, वैसी भरनी: आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज

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As you do, so you fill

As you do, so you fill: श्री दिगम्बर जैन मंदिर सेक्टर 27B चण्डीगढ़ में धर्म सभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज ने कहा कि इस संसार में मनुष्य का बार-बार जन्म-मरण हो रहा है तो क्या कारण है इस जन्म मरण रूपी दुःख को प्राप्त करने का, तो गुरूदेव कहते हैं जो जैसा कर्म करता है उसको उसी कर्म रूपी फल प्राप्त होता हैं, अर्थात् जैसी करनी होगी, वैसी भरनी होगी। इस संसार में सबसे ईमानदार अगर कोई है तो वह है हमारे कर्म। इस कर्म में कोई फेर बदल नहीं होता है इसलिए हमें हमेशा कर्म करते समय हमेशा सावधान होना चाहिए, हमे अपने अन्तरंग में एक गाँठ बांध  कर रख लेनी चाहिए, कि अगर हमें हमेशा स्वस्थ्य और सुखी रहना  है तो हमें काम भी ऐसी ही करने होंगे जिससे  हमें व दूसरों को सुख-शांति महसूस हो।

अगर हम बबूल के बीज बोएं और फल आम के चाहें तो यह तो संभव ही नहीं सकता है तीन काल में। आम के मीठे फल प्राप्त करने के लिए हमें आम का ही बीज बोना पड़ेगा| प्रत्येक समय सावधानी पूर्वक काम करना पड़ेगा, तब कही हम पाप रूप कर्म से बच पाएंगे! आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज से उनके किसी शिष्य ने पूछा हे गुरुदेव हम कैसे चलें, कैसे बैठे, कैसे सोयें, कैसे चेष्टा करें और कैसे भोजन करें जिससे कि हम पाप से बच जाएँ, तो गुरुदेव तो दया की मूर्ति होते है उन्होंने बड़े से प्यार से अपने शिष्य को समझाया कि हे शिष्य तुम्हें कुछ ज्यादा नहीं करना है मात्र यत्न पूर्वक सावधानी पूर्वक या विवेक पूर्वक चलना है, उठना है सोना है बैठना है और भोजन करना है बस इससे ही तुम पाप से बच जाओंगे। फिर से पाप का बंध नहीं होगा क्योंकि पाप का फल पाप रूप ही होता है और पुण्य का फल पुण्य रूप ही होता है।

हम सभी ने इस संसार में देखा है कि जो नीच कास्ट के लोग होते है वे उसी प्रकार के नीच काम करते है और जो उच्च कास्ट के लोग होते हैं वे बड़ी ही श्रद्धा भक्ति से प्रभु की भक्ति पूजा आदि उच्च काम करते हैं लेकिन यह हर जगह संभव नहीं है कुछ अंश में। कई लोग इस बात को जब समझते है तो नीच कास्ट वाला भी समझदारी, विवेक से काम करता हुआ अपने को धन्य कर लेता है अवश्यकता है तो विवेक पूर्वक काम करने की। यह जानकारी बाल ब्रह्मचारिणी गुंजा दीदी एवं श्री धर्म बहादुर जैन जी ने दी।

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