आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज
Acharya Shri 108 Subal Sagar Ji Maharaj
Acharya Shri 108 Subal Sagar Ji Maharaj: चंडीगढ़ दिगम्बर जैन मंदिर सेक्टर 27b में अपनी रत्नत्रय की साधना में लीन, स्व-पर उपकारी सरल सहज व्यक्तित्व के धारी परम पूज्य आचार्य श्री 108 सुबल सागर जी महाराज अपने ससंघ को समझाते, पढाते हुए कह रहे हैं कि हे भव्य मोक्ष के अभिलाषी पथिक इस मोक्षमार्ग में अनुशासन का होना बहुत आवश्यक है अनुशासन के अभाव में विद्यार्थी रूपी शिष्य संसार में भटक जाऐगा। अनुशासन अर्थात् संयम जिस प्रकार बिना ब्रेक की गाड़ी का पतन निश्चित है चाहे वह कितनी ही सुन्दर, महंगी क्यों न हो।यह अनुशासन व्यवहार मार्ग में और मोक्षमार्ग में अपनी अपनी स्थिति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के आवश्यक है। व्यवहार मार्ग में जैसे:-जल्दी उठना, जल्दी सोना अपने सभी काम समय पर पूरा करना तभी जीवन की सार्थकता है।जिसका सोने का, खाने का, घूमने का, जागने का, फ्रैश होने का आदि कामों में संयम नहीं है ऐसा व्यक्ति हमेशा रोगों से ग्रसित रहता है 'तनाव पूर्ण उसका जीवन होता है। तनाव एक मानसिक बीमारी है जो शारीरिक बीमारियों को आमंत्रण देती है।
इसके विपरीत संयमी पुरुष हमेशा स्वस्थ,प्रसन्न रहते है और जो लोग इनके सम्पर्क में आते है वह भी प्रसन्नता, आनंद को प्राप्त कर लेते हैं और रही बात मोक्षमार्ग की तो बिना अनुशासन के मोक्षमार्ग का प्रारम्भ नहीं होता मोक्षमार्ग पर कदम आगे बढ़ाने बाले पुरुषों को ही संयमी कहा जाता है जिन्होंने अपने मन को अंतरंग आत्म तत्त्व से जोड़ लिया है बाहार के सर्व विकल्पों संकल्पों से अपनी आत्मा की रक्षा करते हैं क्रोध मान माया और लोभ रूप कषाय रूप परिणामों को जिन्होंने क्षमा -मार्दव -आर्जव संतोष से जीत लिया है। पांच इन्द्रियों को उन्होंने अपने - अपने विषयों में जाने से रोक दिया है उन्होंने अपने अपने विषयों में जाने से रोक दिया है उनमें उन्हें इष्ट पदार्थों में राग और अनिष्ट पदार्थो में दोष नहीं होती है मन वचन और का्य रूप तीनों योगों को अशुभ उपयोग से हटाकर शुभ उपयोग लगते हैं
इन संयमी अनुशासन प्रिय शिष्यों को गुरु के उपदेश से जब आत्म बोध प्राप्त हो जाता है तो उनके जीवन जीने की इस्ट्राइल ही चेंज हो जाती है। उनका खाना, पीना, चलना, बोलना, देखना और पढ़ना, लिखनादि सब क्रिया-कलाप एक मात्र कर्म निर्जरा का कारण होती है।यह जानकारी बाल ब्र. गुंजा दीदी एवं श्री धर्म बहादुर जैन जी ने दी।
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