उत्तराखंड में प्रकृति का रौद्र रूप
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The fierce form of nature in Uttarakhand : देवभूमि उत्तराखंड में प्रकृति जैसा कहर बरपा रही है, वह न हैरान करता है और न ही उसमें कुछ नवीन दिखता है। पिछले अनेक वर्षों से प्रकृति का यह रौद्र रूप पहाड़ देख रहे हैं। घटनाएं घटती हैं और उनका जिक्र होता है, लेकिन फिर कुछ समय बाद नई घटनाएं घट जाती हैं और पुरानी को हम भूल जाते हैं। वर्ष 2013 में उत्तराखंड अपने समय की सबसे भीषण प्राकृतिक आपदा झेल चुका है, हालांकि उसके बाद से यह पूछा जा रहा है कि क्या यह सब प्राकृतिक है या फिर मानव निर्मित। अभी कुछ दिन पहले ही उत्तराखंड सरकार की ओर से एक विज्ञापन आया है, जिसमें राज्य में इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर किए गए कार्यों का ब्योरा है। जाहिर है, विकास जरूरत है लेकिन इन प्राकृतिक घटनाओं के मद्देनजर क्या यह जरूरी नहीं हो गया है कि प्रकृति का दोहन रोका जाए। गौरतलब है कि उत्तराखंड में बारिश कहर बनकर टूट रही है।
यहां गंगा ऊफान पर है और दूसरी नदियों में भी जलस्तर किनारों को लांघ चुका है। नदियों के किनारों पर बसे गांव-शहरों और यहां बने मकान नदी की जद में आ रहे हैं। भारी बारिश में लोग बह जा रहे हैं। एनडीआरएफ की टीम लोगों के बचाव में लगी है लेकिन फिर भी दूरदराज के इलाके में हालात अनियंत्रित हो गए हैं। उत्तरखंड इस समय बाढ़ में डूब रहा है। खेत-खलिहानों में खड़ी फसल बर्बाद हो चुकी है। सरकार की ओर से यहां 46 लोगों की मौत का आंकड़ा बताया गया है, हालांकि मौतें और ज्यादा भी हो सकती हैं।
नैनीताल जैसा बड़ा पर्यटन केंद्र ही नहीं, राज्य के बहुत से इलाके बाकी दुनिया से कट चुके हैं। यहां सड़कें, पुल और बड़ी संख्या में मकान भी धंस गए, टूट-फूट गए या बह गए। जाहिर है, ऐसी स्थिति में जान-माल के नुकसान का सटीक अंदाजा भी तुरंत नहीं लगाया जा सकता। सही सूचनाएं आने और सरकारी तंत्र को दूरदराज के इलाकों तक पहुंचने में वक्त लगेगा। हालांकि जहां तक भी पहुंचना संभव है, वहां राहत और बचाव कार्य शुरू करने में देर नहीं की गई। तीन सौ से ज्यादा लोगों को बचा लिया गया है। लेकिन जितने लोग जहां-तहां फंसे हुए हैं, उनके मुकाबले यह संख्या बहुत कम है। फिलहाल संतोष की बात इस संदर्भ में कुछ है तो यही कि बारिश थम चुकी है और मौसम विभाग के मुताबिक बादलों ने दूसरी तरफ का रुख ले लिया है। यह बारिश वैसे भी उत्तराखंड तक सीमित नहीं थी, लेकिन फिर भी यह जितनी बड़ी विपदा यहां के लिए साबित हुई, उतनी अन्य राज्यों के लिए नहीं हुई। यह इस बात का एक और सबूत है कि पर्यावरण और प्राकृतिक संतुलन के लिहाज से उत्तराखंड अतिरिक्त रूप से संवेदनशील है और इसका खास तौर पर ध्यान रखे जाने की जरूरत है।
हर बड़े हादसे के बाद दोहराए जाने के बावजूद विकास योजनाओं के स्वरूप में बदलाव के कोई संकेत नहीं दिखाई देते। बार-बार कहा जा चुका है कि चाहे चार धाम प्रॉजेक्ट हो या हाइड्रो इलेक्ट्रिक परियोजनाएं या इस तरह की अन्य विकास योजनाएं- इस पूरे इलाके की पारिस्थितिकी के लिहाज से बेहद खतरनाक हैं और इनके बजाय विकास का ऐसा ढांचा खड़ा करने की जरूरत है, जो जंगल काटने और पहाड़ के हिस्सों को डाइनामाइट से उड़ाने की ओर न ले जाए, बल्कि इनके साथ फल-फूल सके। दिक्कत यह है कि ये सुझाव भी हर बड़े हादसे के बाद निभाई जाने वाली औपचारिकता जैसे हो गए हैं। न तो निर्णयकर्ता इन्हें लेकर गंभीर हैं और न ठोस जनमत की ऐसी ताकत ही इनके इर्द-गिर्द खड़ी हो सकी है, जो निर्णयकर्ताओं को इसके लिए मजबूर करे। वैसे, उत्तराखंड जैसे पहाड़ी और केरल जैसे समुद्र तटीय प्रदेश अपनी भौगोलिक स्थिति के लिहाज से अधिक संवेदनशील हैं।
उनके विकास की पूरी संरचना में इसका ख्याल रखा जाना चाहिए था। लेकिन दूरदर्शी नगर योजना व राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के अलावा बढ़ती आबादी के दबाव ने ऐसे हालात बनाए हैं कि हम तय नहीं कर सके कि कहां पर रुक जाना चाहिए। झीलों, नदी मार्गों को पाटते हुए व्यक्ति भूल बैठा है कि प्रकृति नाराज हुई, तब क्या होगा? यह सही है कि विकास के लिए प्रकृति का दोहन जरूरी है। पर उसकी सीमा क्या हो, यह तो हमें ही तय करना है। प्रकृति लगातार संकेत करती रही, मगर इंसानी समाज अपनी सुविधा से उनको अनदेखा करता रहा है। अपेक्षाकृत विकसित देशों में अब यह समझ बन रही है कि अपनी सभ्यता के अस्तित्व के लिए इस दोहन पर लगाम बहुत जरूरी है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने यूं ही सरकारी भूमि पर नए तेल कुओं की खुदाई को लेकर रोक नहीं लगाई या पर्यावरण संरक्षण को बेमतलब ही अपने एजेंडे में ऊपर नहीं रखा है।
उत्तराखंड हो या फिर हिमाचल या फिर देश का कोई और राज्य। प्राकृतिक संतुलन आज के दौर की परम आवश्यकता हो गई है। पेड़ों का लगातार कटाव जहां रूकने का नाम नहीं ले रहा है वहीं नए हाईवे, सड़क आदि के लिए खेतों का कं्रकीट में बदला जा रहा है और नदियों के किनारों को संकुचित किया जा रहा है। पहले नदियों के किनारे सभ्यता बसती थी लेकिन अब नदिया शहरों के किनारे से सिमटती हुई चुपके से सागर की तरफ निकल रही हैं। लेकिन जब आसमान बरसता है तो यही नदियां अपना विस्तार कर लेती हैं और तबाही ले आती हैं। दरअसल, उत्तराखंड जैसी घटनाएं मौसम की तब्दीली और प्रकृति के रूठने की कहानी कहती हैं और समय रहते इस तरफ ध्यान दिया जाना जरूरी है।