एमएसपी पर कानून पड़ेगा भारी!

Editorial

Law will be heavy on MSP! : किसानों के खेमे में उल्लास है, सरकार के वार्ता शुरू न करने से बेचैन रहे किसानों को एकाएक कृषि कानूनों को निरस्त करने की प्रधानमंत्री की घोषणा से जैसे संजीवनी हासिल हो गई। हालांकि यही संजीवनी अब किसानों को अपनी अन्य मांगों को पूरा करवाने का रास्ता भी दिखा गई है। कानूनों की वापसी से सरकार की कमजोरी को भांप चुके किसानों ने जहां लखनऊ में महापंचायत की है, वहीं प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर छह मुद्दों पर फिर से वार्ता शुरू करने की मांग भी की है, इन मांगों में एमएसपी को कानूनी रूप देना सर्वोपरि है। कृषि कानूनों के प्रावधानों पर किसान संगठनों की आपत्ति थी लेकिन उनकी सबसे बड़ी आशंका एमएसपी के न रहने की भी थी। अब कृषि कानूनों को अगर निरस्त करने की कवायद संसद में शुरू होगी तो किसानों के पास आंदोलन चलाने के लिए और क्या मुद्दा रह जाएगा।

ऐसे में एमएसपी को कानूनी दर्जा दिलाने के लिए अब किसान अगर आंदोलन चलाएंगे तो किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। हालांकि क्या एमएसपी को कानूनी मान्यता दी जा सकती है, अगर यह इतना ही जरूरी होता तो कांग्रेस की सरकारें ही ऐसा क्यों नहीं कर सकीं। बेशक अब मोदी सरकार ने भी एमएसपी को लेकर समिति के गठन की घोषणा की है, लेकिन फिर भी एमएसपी के जरिए अगर किसानों की फसल का एक-एक दाना सरकार की ओर से खरीदा जाना तय हो जाएगा तो फिर कितने हजार करोड़ की सब्सिडी खेती पर लुटा दी जाएगी, इसका अंदाजा देश को है? भारत की अर्थव्यवस्था खेती आधारित है, लेकिन फसल की खरीद अगर एमएसपी पर होगी तो फिर बाकी सेक्टरों का क्या होगा?

 यह मुश्किल कार्य है कि एक सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर फसल का प्रत्येक दाना खरीदे। कोई भी सरकार हो वह न तो किसानों की पूरी उपज खरीद सकती है और न ही एमएसपी खरीद की गारंटी देते हुए कानून बनाकर निजी व्यापारियों को इसके लिए विवश कर सकती है कि वे तय दाम पर ही फसल की खरीद करें। अगर देश के अंदर फसल का मूल्य ही इतना हो जाएगा कि उसकी खरीद में व्यापारी को घाटा उठाना पड़े तो वह फिर यहां से खरीदने की बजाय उसे विदेश से आयात करना ज्यादा पसंद करेगा।

वैसे भी आजकल विदेश में खाद्यान्न की कीमतें भारत की तुलना में कम हो गई हैं। तब यह सवाल उत्पन्न होता है कि एमएसपी पर मोदी सरकार का क्या कानून बनाएगी? कृषि कानूनों को वापस करवा कर अपनी एकता का लोहा मनवा चुके किसानों को इसकी परवाह नहीं है कि देश में दूसरे सेक्टरों का क्या होगा, उसे केवल अपनी परवाह है। यह आरोप की तरह लगता है, लेकिन मोदी सरकार ने अगर खेती को खेती न रहने देकर उसे व्यापार का रूप देने की कोशिश की थी तो क्या यह गलत था। अब तो यह भी सामने आ रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय ने कृषि कानूनों की उपयुक्तता जांचने के लिए जो कमेटी बनाई थी, उसमें ज्यादातर किसान चाहते थे कि इन कानूनों को लागू किया जाए। हालांकि उस रिपोर्ट के सामने आने से पहले ही इन कानूनों को रद्द करने की घोषणा प्रधानमंत्री से जबरन करवा दी गई। 

  भारत में बीते कुछ वर्षों में खेती-किसानी के हालात बदले हैं। छोटी जोत के किसानों को अगर एक तरफ रखा जाए तो कृषि से बड़े किसानों की समृद्धि बढ़ी है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि किसान वही उगा रहे हैं जोकि उन्हें पसंद है। सरकार पर राजनीतिक दबाव होता है और इसके तहत सरकार वही खरीदती है जोकि उगाया जाता है। अब हालात ऐसे हो गए हैं कि देश में जरूरत से ज्यादा गेहूं और धान की खेती हो रही है। इन दो फसलों के अलावा किसान अन्य फसलों को उगाने के लिए तैयार नहीं हैं। अगर कृषि कानून अमल में आते तो संभव था कि कंपनियां तिलहन फसलों की बोआई पर भी ध्यान देती।

  मौजूदा समय में सरकार कृषि पर अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा सब्सिडी दे रही है। इसके अलावा खेती से जुड़ी अन्य चीजों पर भी सब्सिडी दी जा रही है। विश्व व्यापार संगठन को भारत में मौजूदा फसल खरीद पर भारी सब्सिडी देने पर आपत्ति है तो फिर अगर इसे और बढ़ा दिया जाएगा तो अनाज का निर्यात करना मुश्किल हो जाएगा। मोदी सरकार जो कृषि कानून लेकर आई थी, वे भाजपा के नहीं थे, अपितु वैश्विक परिदृश्य में बदलती अर्थव्यवस्था के अनुसार थे। समाज में अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है, लेकिन समय के साथ अब इन वर्गों में भी क्रीमीलेयर आ चुका है। अगर खेती में भी एमएसपी का आरक्षण लागू हो गया तो फिर किसान सुरक्षित हो जाएगा लेकिन अर्थव्यवस्था का बेड़ा बैठ जाएगा।

जाहिर है, केंद्र सरकार के समक्ष यह चुनौतीपूर्ण होगा कि वह एमएसपी पर कानून बनाए लेकिन यह भी तय है कि किसान इससे कम में नहीं मानेंगे। जीत हासिल करने का तरीका भी उन्हें मालूम हो गया है। क्या कृषि क्षेत्र में सुधार का एकमात्र तरीका एमएसपी ही बचा रह गया है?