किसान भी खाली करें बॉर्डर

Editorial

Farmers should also clear the border : कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर पिछले दस महीने से राजधानी दिल्ली के आसपास डेरा डाले बैठे किसान आंदोलनकारियों को रोकने के लिए पुलिस ने जो बैरिकेडिंग की, वह व्यवस्था बनाने के लिए पुलिस-प्रशासन की मजबूरी कही जा सकती है लेकिन इस दौरान आम जनता ने जो झेला है वह बेहद दुखदायी है। लोकतंत्र सरकार की नीतियों के विरोध की आजादी देता है, लेकिन कानून उस आजादी के नाम पर हुड़दंग की आजादी नहीं दे सकता, यही वजह है कि हिंसक आंदोलनकारियों को रोकने के लिए और राजधानी के अंदर उत्पात मचाने से रोकने के लिए बैरिकेडिंग की गई।

सिंघु बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर और वे सभी जगह जहां किसानों को आगे बढऩे से रोकने के लिए पुलिस ने व्यवस्था की, आज जनता के लिए सिरदर्द बन चुके हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने 21 अक्तूबर को अगर सड़कों को खोलने को दबाव नहीं बनाया होता तो संभव है कि पुलिस भी कदम आगे नहीं बढ़ाती। हालांकि इस मामले में अकेले पुलिस प्रशासन को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड के नाम पर राजधानी दिल्ली की सड़कों पर उपद्रवियों ने जो तांडव मचाया था और लाल किले में घुस कर जैसा कोहराम मचाते हुए तिरंगे को अपमानित किया था, उसके मद्देनजर यह जरूरी था कि ऐसे सुरक्षा इंतजाम किए जाएं। लेकिन इन इंतजामों की वजह से दिल्ली और उसके आसपास के इलाके लोगों का जीवन दुभर हो गया। ऐसे में दिल्ली पुलिस ने अगर बॉर्डर पर हुई बैरिकेडिंग हटाने की कार्रवाई शुरू की है तो यह उचित है, लेकिन अब भी किसान आंदोलनकारियों की ओर से इसमें अड़चन डालना दुखद है।

किसान आंदोलनकारियों ने सर्वोच्च न्यायालय से दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन की अनुमति मांगी थी, हालांकि न्यायालय ने वह हलफनामा देने की मांग की थी जिसमें किसान आंदोलनकारी यह विश्वास दिलाएं कि वे शांतिपूर्ण प्रदर्शन करेंगे। बावजूद इसके किसान संगठनों ने यह आश्वासन दिया था कि वे शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करेंगे, लेकिन हरियाणा का करनाल हो या फिर यूपी का लखीमपुर खीरी, आंदोलनकारियों के पुलिस के साथ उलझने की घटनाएं ही सामने आई हैं।

लखीमपुर खीरी में एक ही पक्ष पर आरोप लगाए जा रहे हैं, लेकिन क्या किसानों ने शांतिपूर्ण आंदोलन की शर्त पर काम किया। वैसे हाथों में झंडे लेकर तीखे नारे लगाते हुए रास्ते को ब्लॉक करके खड़े हो जाने  के बाद किसी शांतिपूर्ण आंदोलन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। आंदोलन में ऐसे उपद्रवी भी शामिल होते हैं, जिनका एकमात्र काम उकसावे की गतिविधि को अंजाम देना है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि किसान संगठनों को विरोध करने का अधिकार है, लेकिन वे हमेशा के लिए सड़ेकों को जाम करके नहीं रख सकते। यह टिप्पणी अपने आप में सबकुछ कहती है, जोकि सिर्फ पुलिस के लिए नहीं अपितु किसानों के लिए भी है। बीते वर्ष नागरिकता संशोधन कानून को लेकर दिल्ली में शाहीनबाग को जिस प्रकार बाधित करके रखा गया था, वह विरोध की आजादी का स्पष्ट उल्लंघन था। उस समय भी अदालत बार-बार प्रदर्शनकारियों को हटने-हटाने को कह रही थी लेकिन उसकी अनदेखी ही की जाती रही, प्रदर्शनकारी उस समय हटे जब कोरोना प्रचंड हो गया।

 हरियाणा-दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर बीते नौ-दस महीनों से रास्ता बाधित है, इसकी वजह से यहां से न भारी वाहन गुजर पा रहे हैं और न ही सामान्य वाहन। यात्रियों को काफी घूम कर दिल्ली और यूपी की ओर से जाना पड़ रहा है। यहां पेट्रोल पंप मालिकों, होटल और दूसरा कारोबार करने वाले उद्यमी भी परेशान हैं। हाईवे पर रिहायशी कॉलोनियां भी बनी हैं, जिनके निवासियों का जीवन दूभर हो गया है।

कांग्रेस समेत दूसरे राजनीतिक दल यह दावा करते आ रहे हैं कि उनकी किसान आंदोलन में कोई मिलीभगत नहीं है, वहीं किसान संगठन भी यही दोहराते हैं। लेकिन अब यह साबित हो गया है कि किसान आंदोलन को राजनीतिक समर्थन प्राप्त है। वही वजह है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने अवरोधक हटाए जाने को भी सरकार की ही कमजोरी करार दे दिया है, यहां भी जनता की सुविधा की किसी को परवाह नहीं है। उन्होंने ट्वीट किया है, अभी तो सिर्फ दिखावटी अवरोधक हटे हैं, जल्द ही तीनों कृषि विरोधी कानून भी हटेंगे।  
 

बेशक, पुलिस अपनी ओर से सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद कदम आगे बढ़ा चुकी है, लेकिन किसान आंदोलनकारी अब भी हेठी कर रहे हैं। पुलिस ने रात को टीकरी बॉर्डर खोला तो आंदोलनकारियों ने इसे फिर बंद करवा दिया। किसान जेसीबी के सामने लेट गए और लोहे की बैरिकेड लगाकर खुद ही दो जगह रास्ता बंद कर दिया। क्या यह हुड़दंग और उपद्रव का जीता-जागता उदाहरण नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय का आदेश सिर्फ पुलिस पर ही लागू नहीं होता, किसानों को भी अपने तंबू हटाकर व्यवस्था बनाने में योगदान देना चाहिए। सिंघु बॉर्डर पर एक युवक की नृशंस हत्या, मुर्गा न देने पर एक अन्य कारोबारी की टांग तोडऩा, बंगाल की युवती से रेप और दूसरे अनेक छिपे और उजागर अपराधों ने इस इलाके को बेहद विवादित बना दिया है। ऐसे में रास्तों को जहां तुरंत खुलवाए जाने की जरूरत है वहीं आंदोलनकारियों को भी उनके घर भेजे जाने की आवश्यकता है। जाहिर है, पुलिस यह काम बखूबी कर सकती है, लेकिन वह संयम का परिचय दे रही है। बीते दिनों हरियाणा के गृहमंत्री अनिल विज ने टिप्पणी भी की थी कि प्रदेश में कांग्रेस सरकारों के वक्त किसानों पर गोलियां भी चली हैं, लेकिन मौजूदा सरकार ने काफी संयम का परिचय दिया है। बेशक, सरकार जितना समझ कर चल रही है, किसान उतनी जिम्मेदारी का परिचय नहीं दे रहे, यही वजह है कि किसान नेता टिकैत ने खुशी जताई है कि सड़क खुलने से उनके ट्रैक्टर अब संसद तक जा सकेंगे। जाहिर है, किसान नेताओं के बयानों ने ही 26 जनवरी के उपद्रव को जन्म दिया था, वही काम फिर हो रहा है। बैरिकेडिंग हटाने के बावजूद पुलिस को सावधान रहना होगा, क्योंकि उपद्रवियों के लिए किसान हित नहीं अपितु अपने राजनीतिक आकाओं के स्वार्थ ज्यादा अहमियत रखते हैं।