Dharma Sansad don't forget justification

धर्म संसद न भूलें औचित्य

धर्म संसद न भूलें औचित्य

Dharma Sansad don't forget justification

धर्म संसद क्या अपना औचित्य नहीं भूल रही हैं? देश की हवाओं में आजकल जब चुनाव की रंगत है, तब धर्म संसदों में बोलने वाले कुछ ऐसा संदेश दे रहे हैं जोकि देश में तनाव पैदा कर रहा है। अब अपने विचार जाहिर करने का मतलब दूसरे धर्म के खिलाफ बोलना हो गया है। एक तरफ से एक बयान आता है तो उसके जवाब में दूसरी तरफ से दूसरा। यह सिलसिला आगे से आगे जारी रहता है। नेताओं के अपने बोल हैं, लेकिन जिन्होंने धर्म का पुरोधा बनने का संकल्प लिया है, वे भी अधर्म कर रहे हैं। देश में धर्मनिरपेक्षता शब्द अब अपनी गरिमा खो चुका है। एक तरफ बेअदबी की वारदात घटती है तो भीड़ आरोपी को मार डालती है, क्योंकि धर्म की रक्षा जरूरी है, वहीं एक मंच से कोई विवादित बयान देता है तो उसकी तरफदारी में भी भीड़ खड़ी हो जाती है। नेता हो, अभिनेता हो, संत हो या फिर काजी। सभी अपने आप को आगे बढ़ाने में जुटे हैं, संविधान में व्यक्त भावना और धर्मों के बीच का सौहार्द अब चरमरा रहा है, क्या यह अलार्मिंग नहीं है। अभिनेता नसीरुद्दीन शाह की टिप्पणी भी आ गई, उस टिप्पणी पर पाकिस्तान के हर खास और आम ने मोर्चा खोल दिया। बेशक, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में कितनी ही धार्मिक आजादी खत्म होती हो, लेकिन उसकी चर्चा वहीं तक सीमित हो जाती है, लेकिन भारत में अगर किसी की नासमझी से ऐसा हो जाए तो यह अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है।  

   हरिद्वार, और रायपुर में दो धर्म संसदों के दौरान जैसे वक्तव्य सामने आए हैं, वे बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं। समय के साथ लोगों के अंदर वह मर्यादा खत्म हो रही है, जिसमें वे किसी व्यक्ति या किसी संस्था के सीमित विचार या कार्यों की आलोचना करें, अब मामला पूरी कौम को आरोपी ठहराने का हो गया है, जोकि परेशानी का सबब बनेगा ही। धर्म संसद जैसे मंच से वैश्विक बंधुत्व और समाज में बुराइयों को खत्म करने के लिए आवाज उठाने का होना चाहिए। एक समय स्वामी विवेकानंद शिकागो में धर्म संसद में सम्मिलित हुए थे, जिसने भारत के संबंध में दुनिया की सोच को बदल दिया था। इस मंच से धर्म की नई व्याख्या सुनने और समझने को मिली थी। जाहिर है, उस समय जो घटा, हम आज उसी के बूते विश्व गुरु होने का दंभ भरते हैं, ऐसे में आज की पीढ़ी का यह दायित्व बनता है कि वह निहित स्वार्थों के अनुरूप धर्म की व्याख्या न करे। इन धर्म संसदों में धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने, मुस्लिम प्रधानमंत्री न बनने देने, मुस्लिम आबादी न बढ़ने देने समेत धर्म की रक्षा के नाम पर विवादित भाषण दिए जा रहे हैं। इस तरह के भाषणों, बयानों से सांप्रदायिक नफरत फैलती है, जोकि देश की मौलिकता को नष्ट करती है। यह मामला वास्तव में धर्म बचाने का नहीं, अपितु संविधान बचाने का है। भारतीय संविधान सभी धर्मों को समान रूप से देखता है और यहां प्रत्येक धर्मानुयायी को अपने तरीके से जीवन यापन का अधिकार हासिल है। हालांकि बावजूद इसके प्रत्येक की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह संविधान की इस भावना को अंगीकार करे।

   देश में न बेअदबी की इजाजत दी जा सकती है और न ही किसी धर्म के खिलाफ शस्त्र उठाने की। राजनीतिक स्वार्थ में जैसी आग लगाई जाती है, वह समाज के लिए भयानक है। इसी वजह से दूसरे धर्म के लोगों के मन में कटुता पैदा होती है और वे ऐसे बयान देने को बाध्य होते हैं, जैसा बयान अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने दिया। उन्होंने कहा कि हम 20 करोड़ लोग इतनी आसानी से खत्म होने वाले नहीं हैं...। नसीर की यह टिप्पणी धर्म संसद से आने वाले बयानों के जवाब में दी गई है। जाहिर है, जब मामला धर्म का हो तो प्रत्येक अपने-अपने धर्म के झंडे को ही बुलंद करना चाहेगा। अगर एक पक्ष ने विवादित कहा तो आगे से यह नहीं कहा जाता कि यह उनकी भूल है और ऐसे विवादित बयान नहीं आने चाहिए। बावजूद इसके ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं जिससे टकराव बढ़ने की गुंजाइश बढ़ती है। अभिनेता नसीर के बयान को पाकिस्तान में हाथों-हाथ लिया गया है। पाक में हिंदुओं-सिखों पर अत्याचार की स्थिति में भारत की ओर से कड़ी टिप्पणी की जाती है, बदले में भारत में घटने वाली ऐसी घटनाओं पर पाकिस्तान की जनता, सरकार और मीडिया अपनी सुध-बुध खोकर वह सब कहने लगते हैं, जिससे माहौल और खराब हो।

   पाकिस्तान के एक पूर्व राजनयिक ने कहा कि भारत में नसीर एक न टाले जाने वाले गृहयुद्ध की बात कर रहे हैं, अगर ऐसा हुआ तो किसी को शक नहीं है कि पाकिस्तान और दुनिया इस युद्ध में किस तरफ होंगे। हालांकि विश्व समाज में मजहबी आतंक तेजी से बढ़ रहा है, पश्चिम देशों में अनेक ऐसी घटनाएं सामने आई हैं, जब मजहब पर संकट दिखाते हुए एकजुट होने और गैर मुस्लिमों के खिलाफ एकजुट होने की बात कही गई है। वास्तव में भारत जैसे देश में लोकतंत्र इसकी छूट देता है कि सभी धर्मावलंबी आपस में ऐसे मुद्दों पर भी बहस कर सकें जोकि विवादित हैं। लेकिन इसके बावजूद किसी अन्य के अस्तित्व को नकारना बेहद गैर जिम्मेदाराना और संविधान के खिलाफ जाना है। देश में चाहे वह धर्म संसद हो या फिर मस्जिदों से आने वाले पैगाम, सधे हुए होने चाहिएं। राजनीतिकों को चुनाव लड़ना है तो लड़ें, लेकिन धर्म की आड़ में माहौल को खराब करने की कुचेष्टा का विरोध होना चाहिए। देश की गंगा-जमुनी तहजीब कायम रहनी चाहिए।